

नैनीताल से एक अहम खबर आ रही है। उत्तराखंड की राजनीति, पंचायतों की गलियों से उठकर हाईकोर्ट की चौखट तक जा पहुँची है। शुक्रवार, 27 जून को न्याय की उस कुर्सी पर बैठे मुख्य न्यायाधीश जी. नरेंद्र और न्यायमूर्ति आलोक मेहरा की खंडपीठ ने राज्य के त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों पर लगी रोक को हटा दिया है।
अब आप सोच रहे होंगे कि मामला क्या था? तो जनाब, बात शुरू होती है आरक्षण रोस्टर से। सरकार ने नया रोस्टर जारी किया, लेकिन याचिकाकर्ताओं को इसमें कुछ पुरानी गंध आई। कहने लगे कि कुछ सीटें तो वर्षों से एक ही वर्ग के पास हैं। संविधान के अनुच्छेद 243 की दुहाई दी गई, और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की याद दिलाई गई।
कोर्ट में एक साहब ने ये भी कहा कि देहरादून के डोईवाला ब्लॉक में तो ग्राम प्रधानों की 63 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर दी गई हैं। सवाल खड़ा हुआ कि क्या ये बराबरी है? और फिर पूछा गया कि जब ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष दोनों का चुनाव एक जैसी प्रक्रिया से होता है, तो आरक्षण का पैमाना एक-सा क्यों नहीं?
राज्य सरकार ने कहा देखिए, हमने पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट पर रोस्टर को शून्य किया है और अब ये चुनाव पहली बार माने जाएंगे। लेकिन याचिकाकर्ताओं ने 9 और 11 जून को जारी नियमावली को कोर्ट में चुनौती दी। कहा गया कि सरकारी गजट में तो प्रकाशन ही नहीं हुआ, फिर ये नियम कैसे लागू माने जाएं?
अंत में, कोर्ट ने न सिर्फ चुनाव की रोक हटाई, बल्कि राज्य निर्वाचन आयोग को तीन दिन का एक्सटेंशन देते हुए नया चुनाव कार्यक्रम घोषित करने के आदेश दिए। सरकार को भी कहा गया है कि याचिकाकर्ताओं की बातों का जवाब तीन हफ्तों के भीतर कोर्ट में दे।
अब देखना ये है कि पंचायतों की ये सियासत गली से निकलकर क्या नई कहानी लिखती है। लेकिन इतना तय है संविधान की किताब को हर बार चुनावी मौसम में फिर से पढ़ने की ज़रूरत पड़ती है।