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उत्तराखंड के गांवों में लोकतंत्र की चूलें फिर हिल गई हैं। एक तरफ सरकार है जो चुनाव करवाने की हड़बड़ी में है, दूसरी तरफ न्यायपालिका है, जो आरक्षण के नियमों में साफ़-साफ़ प्रक्रिया की मांग कर रही है। सवाल उठता है क्या यह सिर्फ तकनीकी चूक है, या लोकतंत्र की बुनियाद से छेड़छाड़?
नैनीताल हाईकोर्ट की खण्डपीठ, जिसमें मुख्य न्यायाधीश जी. नरेंद्र और न्यायमूर्ति आलोक महरा शामिल हैं, ने उत्तराखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव पर रोक लगा दी है। वजह? राज्य सरकार ने अब तक आरक्षण नियमावली का सही तरीके से नोटिफिकेशन ही जारी नहीं किया।
सरकार कह रही थी कि सब तय है, चुनाव आयोग ने अधिसूचना भी जारी कर दी थी। लेकिन कोर्ट ने साफ कह दिया जब आरक्षण की प्रक्रिया ही संदिग्ध है, तो चुनाव कैसे करवा सकते हैं? बागेश्वर निवासी गणेश दत्त कांडपाल और अन्य याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट में गुहार लगाई कि पिछले तीन कार्यकालों से जो सीटें आरक्षित थीं, उन्हें चौथी बार भी आरक्षित कर दिया गया है। यानी आम उम्मीदवारों के लिए चुनाव लड़ने का मौका ही नहीं बचा। उन्होंने कोर्ट को बताया कि 9 जून 2025 को राज्य सरकार ने नई आरक्षण नियमावली लागू की, और 11 जून को एक और आदेश जारी कर पहले की आरक्षण रोटेशन प्रक्रिया को शून्य घोषित कर दिया। अब यहीं से मामला पेचीदा हो जाता है क्या सरकार पुराने आदेशों को दरकिनार कर मनमाफिक आरक्षण तय कर सकती है? वहीं राज्य सरकार की तरफ से कहा गया कि इसी विषय पर एकलपीठ में भी याचिकाएं लंबित हैं। लेकिन याचिकाकर्ताओं के वकील ने जोर देकर कहा उन्होंने तो खण्डपीठ में सीधे 9 जून के आदेश को चुनौती दी है, जो मूल नियमावली को ही कटघरे में खड़ा करता है। कोर्ट ने जब सरकार से स्थिति स्पष्ट करने को कहा, तो सरकार समय रहते जवाब नहीं दे पाई। उल्टा, चुनाव की अधिसूचना निकाल दी जबकि मामला कोर्ट में लंबित था।
बता दे कि चुनाव की अधिसूचना के मुताबिक, हरिद्वार को छोड़कर बाकी 12 जिलों में पंचायत चुनाव कराए जाने थे। 21 जून को अधिसूचना जारी की गई, और 23 जून यानी आज, जिला अधिकारियों को चुनाव संबंधी निर्देश भेजे जाने थे। लेकिन हाईकोर्ट का आदेश पहले आ गया और पूरी चुनाव प्रक्रिया ठप हो गई।

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चुनाव की टाइमलाइन: दो चरण, एक फैसला

नामांकन: 25 से 28 जून

जांच: 29 जून से 1 जुलाई

नाम वापसी: 2 जुलाई

चुनाव चिन्ह आवंटन: 3 जुलाई

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पहला चरण मतदान: 10 जुलाई

दूसरा चरण मतदान: 15 जुलाई

परिणाम: 19 जुलाई

अब यह सब तारीखें सिर्फ कागज़ों पर हैं और लोकतंत्र, एक बार फिर आरक्षण की उलझनों में ठिठक गया है। अब यहाँ सवाल य़ह उठता है कि सरकार जल्दी में क्यों थी? और कोर्ट की अनदेखी क्यों?
ये कोई पहली बार नहीं है जब पंचायत चुनावों में आरक्षण को लेकर विवाद हुआ हो। लेकिन सवाल ये है कि जब कोर्ट पहले से इस मुद्दे पर सुनवाई कर रहा था, तब सरकार को इतनी जल्दी चुनाव की अधिसूचना जारी करने की क्या ज़रूरत थी? क्या ये प्रशासनिक लापरवाही है, या लोकतंत्र की शॉर्टकट राजनीति?
कुल मिलाकर गांवों की चौपाल से लेकर नैनीताल हाईकोर्ट की पीठ तक, उत्तराखंड का पंचायत चुनाव फिलहाल स्थगित है। लेकिन असल में जो स्थगित है वो है जवाबदेही, पारदर्शिता और प्रशासनिक जिम्मेदारी।

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