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देहरादून: नए साल के जश्न के नाम पर जो चोंचलेबाजी व दिखावा किया जाता है, क्या वह भारतीय संस्कृति के अनुकूल है?
गौरतलब है कि दिसम्बर माह के समापन के साथ ही लोगों में खुशी का माहौल दिखने लगता है। आज की युवा पीढ़ी इस दिन को ऐसे मनाती है मानो नए साल के रूप में उन्हें कोई बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त हुई हो। भौगोलिक तथ्यों की बात करें तो इस दिन पृथ्वी सूर्य का एक चक्कर पूरा करती है। ऐसा माना जाता है। इसलिए नये साल का क्या औचित्य हुआ? बाजारू संस्कृति ने इस दिन को ऐसा बना दिया है कि सारा देश इस दिन “हैप्पी न्यू ईयर” के उपलक्ष्य में तमाम फूहड़ भरे कार्यक्रम करते हैं। वैसे भी नया साल अंग्रेजों के हिसाब से मनाया जाता है। अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार नया साल जनवरी से शुरू होता है। चीनी, भारतीय या अरबी लोगों का कैलेण्डर 1 जनवरी से आरम्भ नहीं होता है। हालांकि देखा-देखी में वे भी इसे नये साल के जश्न के रूप में मनाने लगे हैं। अंग्रेज लोग अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज, खान-पान, सभ्यता पर बड़ा गर्व करते हैं और उन्होंने अपनी “हैप्पी न्यू ईयर” की संस्कृति को सारे विश्व में फैला दिया है। इसके बावजूद भारतीय लोग अंधाधुंध अनुसरण की नीति अपनाकर अपनी पुरातन संस्कृति को पीछे छोड़ते जा रहे हैं।
आज के परिपेक्ष्य में यह देखा जा रहा है कि लोग थर्टी फर्स्ट (31 दिसम्बर) मनाने के लिए जिस प्रकार की संस्कृति अपना रहे हैं, वह न तो हमारे भारतीय सभ्यता के अनुकूल है और न ही हमारी संस्कृति के अनुरूप। लोग तथाकथित आधुनिकता का चोला ओड़े मांस, शराब, नशा, उन्मुक्तता के नाम पर फाइव स्टार होटलों में अर्धनग्न नृत्य, कैबरे डांस आदि करते हैं। क्या यही नया साल मनाने की परंपरा है? यह संस्कृति हमें कहां ले जा रही है? इन कार्यक्रमों में जहां हमारी सांस्कृतिक परंपराओं पर आघात पहुंचता है, वहीं हमारी सभ्यता पर भी चोट पड़ना स्वाभाविक है। पाश्चात्य संस्कृति के अंधाधुंध अनुकरण के कारण हमारे रिश्तों में पहले से जो दहलीज बनी हुई थी, वह अब पार होती जा रही है। परिणामस्वरूप, हमारे देश में भी पश्चिमी देशों की तरह यौन अपराध बढ़ रहे हैं और समाज में अवांछित घटनाओं की बाढ़ सी आ गई है।
कुल मिलाकर, 31 दिसम्बर की जो संस्कृति भारत में फैलती जा रही है, वह यहाँ की पुरानी सांस्कृतिक धारा से मेल नहीं खाती और हमें इसकी गंभीरता से समीक्षा करनी चाहिए।