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शराब की बढ़ती लत बन रही पहाड़ की समृद्धि का संहार
देहरादून: कभी शौकिया तो कभी खुशी के मौकों का बहाना बनी शराब आज घर-घर की लत बन गयी है। ऐसी बुरी लत जिसने दबे पांव अपराध पनपाए, दुर्घटनाओं को दावत दी। धीरे-धीरे माहौल बदला और आज पांव पसारते हुए पुश्तैनी रीति-रिवाज के सारे तौर-तरीके ही बदल डाले हैं। दिन की शादी की जहां कल्पना ही नहीं की जा सकती थी, इस शराब ने आज रात की शादियों को चलन से ही बाहर कर दिया है। सारे शुभ कार्य दिन ही दिन में निपटाने की कवायद आम हो चली है।
संस्कार, सरोकार व परम्पराओं से लबरेज पहाड़ आज इस चलताऊ महानगरीय दस्तूर पर उतर आया है तो यह इसी शराब की देन है। इस लत ने धन लीला, तन लीला और अब यह मन भी लीलने को आमादा है। यही कारण है कि कभी उत्साह व उमंग की कुलांचे मारता पहाड़ आज निस्तेज व निढाल हो चला है। सामाजिक सरोकार चूकने लगे हैं। जहां पहले बीड़ी-सिगरेट तो दूर बुजुर्गों से चाय व पान तक की परदेदारी थी, वहां आज शराब ने अदब की यह दीवार भी ढा दी है।
इस बढ़ते कोड़ में खाज की सी हालत सरकार ने पैदा कर दी है। इस दुव्यर्वसन से निपटने की बजाय वह यहां विदेशी पैटर्न पर माइक्रो पब कल्चर को बढावा दे रही है। जबकि यहां पहले ही कई सौ करोड़ रुपयों की शराब सरकार हर साल लोगों को पिला रही है, कुल मिलाकर हालत यह है कि दूर-दराज तक के इलाकों में जहां नून-तेल तक के फांके हैं, वहां पर शराब इफंरात में मयस्सर है।
शराब की यह बीमारी सन् 1995 में मुलायम सिंह यादव सरकार के शासन काल में पहाड़ को लगाइ गयी थी। तत्कालीन सरकार ने पहाड़ की दशा सुधारने के लिए तो कोई ध्यान नहीं दिया, हां राजस्व बढ़ाने के नाम पर समूचे पहाड़ में शराब की सरकारी दुकाने अवश्य खुलवा दी और वर्तमान सरकार भी इसे सिर्फ पैसे के चश्मे से देख रही है। उसे यह नहीं दिख रहा कि स्वस्थ-समृद्ध समाज व मुल्क पैसे से नहीं बल्कि स्वस्थ तन व स्वस्थ मन से बनता है। पर एक राज्य के यही मिथक यहां कुंद हो रहे हैं। पैसे के लोभ में जो क्षति हो रही है, उसकी भरपाई मुश्किल है। कंगाली और काहिली तो इसका एक छोटा ट्रेलर भर है। शराब ने घर के घर बर्बाद कर दिये हैं।
शराब की दुकानों की साल दर साल हो रही लगातार बढ़ोतरी के लिहाज से उसका यह फैसला दूरगामी ही सही, लेकिन सरकार शायद यह भूल बैठी है कि स्वस्थ, समृद्ध समाज व मुल्क पैसे से नहीं बल्कि स्वस्थ तन व स्वस्थ मन से बनता है। क्योंकि पहले ही शराब ने पहाड़ को खोखला करके रख दिया है। सरकारी मयखाने बर्बादी का सबब बन रहे हैं। आलम यह है कि ‘मयखाने में किसने कितनी पी खुदा जाने, लेकिन तेरा मयखाना तो बस्ती के कई घर पी गया’ का यह जुमला आज पूरे पहाड़ पर खरा उतरता है।