

हम पत्रकार हैं, लेकिन कभी-कभी लगता है कि पत्रकारिता कहीं पीछे छूट गई है। सवाल पूछने की हमारी परंपरा थी, अब वह चापलूसी में बदल गई है। कभी प्रेस की ताकत सत्ता के गलियारों को कंपा देती थी, आज वही प्रेस सत्ता की गोद में बैठी नज़र आती है। सवाल सत्ता से होना चाहिए, मगर निशाना विपक्ष पर साधते है। रोज़ नए घोटाले सामने आते हैं, लेकिन उनका जिक्र मीडिया में नदारद रहता है। कैमरे विपक्षी नेताओं के पीछे भागते हैं, सत्ता पक्ष की तस्वीरों में मुस्कराहट ही मुस्कराहट है। भ्रष्टाचार की कहानियाँ सामने हैं, लेकिन चैनल खामोश हैं। किसी अधिकारी ने जमीन हथिया ली, किसी नेता जी ने रिश्वत ली हम जानते हैं, लेकिन दिखाते नहीं। क्योंकि कैमरा वहां नहीं जाता, जहाँ मालिक को नुकसान हो। अधिकारियों की जी-हुजूरी में पत्रकारिता दम तोड़ रही है। आईएएस और आईपीएस की गाड़ियों के पीछे दौड़ते रिपोर्टर, उनके आगे हाथ जोड़ते एंकर क्या यही पत्रकारिता है? सवाल पूछने के बजाय अब हम प्रेस नोट पढ़ते हैं और उसे ही खबर बना देते हैं। नेताओं की ‘हा’ में ‘हा’ मिलाते-मिलाते मीडिया ने जनता से नाता तोड़ लिया है।
‘गोदी मीडिया’ का तमगा यूँ ही नहीं मिला है। यह जनता की भाषा है उनकी नाराज़गी की आवाज़ है। जब आप सवाल पूछना बंद कर देते हैं, तब जनता आपसे जवाब मांगती है।
बात का बतंगड़ बनाकर टीआरपी की होड़ में लगे हुए है हम और लोगों का भरोसा खोते जा रहे हैं।
‘बड़ी खबर’ अब ‘बड़ा ड्रामा’ बन चुकी है। बहस अब समाधान नहीं, सनसनी के लिए होती है। पत्रकार अब ऐंकर हैं, और ऐंकर अब अभिनेता। अगर हम पत्रकारिता को बचाना चाहते हैं, तो फिर से वही करना होगा जो पत्रकार किया करते थे, सत्ता से सवाल। वरना वो दिन दूर नहीं जब लोग अखबार को अख़बार नहीं, इश्तिहार समझने लगेंगे।