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आंतरिक विवाद और नेतृत्व की कमी ने किया कमजोर
देहरादून: देश के अन्य राज्यों में जहां क्षेत्रीय दलों की ताकत बढ़ रही है, वहीं उत्तराखंड में क्षेत्रीय ताकतें या तो अपने में ही सिमट कर रह गई हैं, या फिर उनकी आपसी खींचतान ने उन्हें रसातल में पहुंचा दिया है। जबकि उत्तराखंड राज्य आंदोलन का आधार ही क्षेत्रीय ताकतें थीं, आज ये सभी क्षेत्रीय ताकतें हासिये पर हैं। राज्य निर्माण के 24 सालों के सफर में भी क्षेत्रीय दल कोई खास सफलता नहीं हासिल कर पाए, जिसके कारण जनता का विश्वास उनसे टूट गया और अब ये दल अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।
गौरतलब है कि क्षेत्रीय दलों का गठन यहां की भू-सम्पदा, जल, और स्थानीय हितों को संरक्षित करने के लिए किया गया था। इन दलों ने पहाड़ी जिलों के साथ सौतेले व्यवहार को अपने एजेंडे में रखा। राज्य निर्माण से पूर्व, क्षेत्रीय शक्तियों द्वारा किए गए जन आंदोलनों की गूंज लखनऊ और दिल्ली के सियासी गलियारों में सुनाई दी। हालांकि, 1980 के दशक से लेकर आज तक क्षेत्रीय दलों ने कई प्रयास किए, लेकिन वे एक मजबूत सियासी जमीन तैयार नहीं कर पाए। राज्य निर्माण के लिए जिन ताकतों ने आधार तैयार किया था, वे अब अपने अस्तित्व की बची-खुची लड़ाई भी हार चुके हैं।
क्षेत्रीय दलों के जनाधार के सिकुड़ने का मुख्य कारण इन दलों में गंभीर राजनीतिक समझ की कमी है। इनके द्वारा किए गए नए प्रयोग अपने उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहे। इन दलों के अस्तित्व को बचाने के लिए अब तक हुए चुनावों में इनका प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। राज्य गठन के समय उम्मीद थी कि इन दलों को एक मजबूत आधार मिलेगा, लेकिन 20 साल से अधिक समय में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। राज्य गठन का श्रेय भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) को मिला, और क्षेत्रीय दलों ने राज्य निर्माण से पूर्व के आंदोलनों का श्रेय भी नहीं ले पाए। इन दलों का आंतरिक संघर्ष और नेतृत्व की आपसी लड़ाइयां इनकी कमजोरी का कारण बनीं।
प्रदेश के लोगों से अपेक्षाएं थीं कि ये दल मुद्दों को उठाएंगे, लेकिन इन दलों ने एक-दूसरे की टांग खींचने और आपसी कलह में समय गवा दिया। इन 24 वर्षों के दौरान, चाहे वह परिसीमन, स्थाई राजधानी, जल, जमीन, जंगल, रोजगार, विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे हों, इन पर क्षेत्रीय दलों ने चुप्पी साधे रखी। राज्य निर्माण से पूर्व राजधानी के नाम पर जो आंदोलन हुए थे, वे सियासी प्रेम में उलझकर रह गए। अगर इन दलों ने सच में स्थाई राजधानी के मुद्दे पर गंभीरता दिखाई होती, तो आज दीक्षित आयोग की रिपोर्ट धूल नहीं खा रही होती।
जनता ने विकल्पहीनता के कारण राष्ट्रीय दलों की ओर रुख किया है। हालांकि, जनता इन दलों के कामकाज से संतुष्ट नहीं है, लेकिन मजबूत विकल्प न होने के कारण उन्हें राष्ट्रीय दलों को चुनने पर मजबूर होना पड़ा। क्षेत्रीय दलों के सामने संगठित कमजोरी पहले से ही मौजूद थी। ये दल ग्रास रूट पर काम करने के बजाय आपसी बिखराव और टकराव का शिकार बन गए हैं। पदों की लड़ाइयों और पदों की भरमार ने इन्हें अपने कर्तव्यों से भटका दिया। जो नेता दल को अपनी निजी जागीर समझते हैं, उन्होंने बार-बार विभाजन की त्रासदी झेली है।
जाने-माने समाजशास्त्री डॉ. डी.डी. पंत के शब्दों में, “क्षेत्रीय दल अपने मुद्दों पर समझौते करने लगे हैं, इसलिए उन्हें व्यापक मंथन की आवश्यकता है।”
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