

देहरादून: उत्तरकाशी से लेकर चमोली, टिहरी से रुद्रप्रयाग तक, आसमान में बादल गरज रहे हैं और नीचे सरकार का चुनावी नगाड़ा। चुनाव की तारीखें तय हैं, प्रत्याशी मैदान में उतर चुके हैं, लेकिन आसमान से टपकती बूंदें पूछ रही हैं जनता की जुबान सुनी जाएगी या बादलों की गड़गड़ाहट?
राज्य निर्वाचन आयोग ने जैसे ही पंचायत चुनाव का संशोधित कार्यक्रम घोषित किया, वैसे ही गांव-गांव में ‘चुनावी बयार’ बहने लगी। लेकिन यह बयार जुलाई की बारिश में कब तूफान बन जाए, कहना मुश्किल है।
माननीय जिलाधिकारी साहब (प्रशांत कुमार आर्य) कह रहे हैं कि पंचायत चुनाव अभियान ऑफिस कार्य है, यानी कार्यालय का काम। लेकिन जनाब, ये कोई कंप्यूटर की फाइलें नहीं जो बारिश में भी क्लिक से चलेंगी। यहां बात है उन मतदान कर्मियों की जो खिसकती पहाड़ियों, टूटते पुलों और फिसलन भरे रास्तों से होते हुए लोकतंत्र की डगर पर चलेंगे।
हरिद्वार को छोड़ बाक़ी 12 जिलों में चुनाव की रणभेरी तो बज चुकी है, लेकिन ये रण बारिश की ललकार से कैसे लड़ा जाएगा, ये सवाल अभी से सिस्टम की नींदें उड़ा रहा है। ऊपर से मौसम विभाग का अलर्ट बादल फट सकते हैं, सड़कों की हालत बिगड़ सकती है। तो क्या प्रशासन राहत बचाव करेगा या मतपेटियों की रखवाली?
इस मानसूनी चुनाव में सबसे बड़ी परीक्षा उस ग्रामीण मतदाता की होगी, जो छाता थामे बूथ तक जाएगा एक हाथ में लोकतंत्र की उम्मीद, दूसरे में चप्पल और पीछे कीचड़ से भरा रास्ता। प्रत्याशी भी खूब तैयारी कर रहे हैं, कोई जलसंकट से जूझते गांव में वादों की नाव लेकर पहुंच रहा है, तो कोई धँसती ज़मीन पर विकास का पुल बनवाने का वादा कर रहा है।
राज्य निर्वाचन आयुक्त सुशील कुमार कह रहे हैं कि कंटीजेंसी प्लान तैयार है। लेकिन सवाल यह है कि पहाड़ के इन सुदूर गांवों तक कंटीजेंसी पहुँचेगी कैसे, जब रास्ते ही कंटीजेंसी में हों?
लोकतंत्र के इस बरसाती पर्व में जनता को तो वोट देना ही है, लेकिन क्या सरकार को भी ये तय नहीं करना चाहिए कि पर्व की तारीखें ऐसे मौसम में न पड़ें, जब पहाड़ तक रोने लगते हैं? अब सवाल य़ह है कि
सरकार आपदा से लड़ेगी या चुनाव लड़वाएगी? और अगर दोनों साथ-साथ लड़ेगी, तो कहीं लोकतंत्र पानी-पानी न हो जाए।