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संजय रावत

किसी छोटे कस्बे को अनियंत्रित विकास के कारण, उसे महानगर कह भी दिया जाए तो क्या फर्क पड़ता है? अनियंत्रित विकास कभी भी नागरिक चेतना का मानक नहीं बन सकता। यही इस केस की अहम कड़ी है। कस्बे मैं कुछ डॉक्टर हैं, लंबी तादात में मरीज हैं, कुछ पत्रकार हैं और कोई पीड़ित पक्ष भी।

कस्बा अनियंत्रित रूप से विकसित हो रहा तो कौन किसको जाने। ऐसे में कई अनहोनियां होना लाजमी है, इन अनहोनियों में मुद्दई के साथ कौन और किस शर्त में खड़े हैं, आज की प्राथमिक सूचना इसी बात पर है। डॉ महेश शर्मा साहब का परिवार करीब तीन पीढ़ी पहले उत्तर प्रदेश के एक कारीगर जिले से आज के पिथौरागढ़ बस गए थे। आजीविका का मुख्य श्रोत था तस्वीरों की फ्रेमिंग करना।

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ऐसी परिस्थितियों में महेश की ऊर्जा ने कुछ ठान लिया। जिसकी परिणति एक न्यूरो सर्जन के रूप में हुई ही नहीं बल्कि उन्होंने अपने टेलेंट और व्यवहार से खुद को साबित भी किया। पर दुर्भाग्य जब साथ हो तो आपको राय मिलती है कि समाज में प्रतिष्ठित कहे जाने वाले लोगों को साथ लो।यहीं से उनके संग कुछ प्रशासनिक अधिकारी, समाजसेवी और पत्रकार बंधू साथ हो चले।

बात लंबी न जाए इसलिए अब असल मुद्दे पर लौट आते हैं। उपरोक्त गलतियों के आधार पर उनके कुछ मित्रो के खिलाफ प्राथमिकता दर्ज हुई है, जिसमें कहा गया है कि आधारहीन खबरों के माध्यम से शिकायतकर्ता को परेशान करने की साजिश रची जा रही है। साथ ही आज डॉ महेश शर्मा के खिलाफ जो तहरीर दी गई थी उस पर आज उन्होंने जमानत करा ली है।

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इस मामले पर जब हमने विवेचना अधिकारी एसआई ( सब इंस्पेक्टर) रजनी जी से बात करी तो उनका कहना था कि यह कौन सा समय है इस समय बात करने का, मैं अभी अपने बच्चों को सुला रही हूं। हमारे यह कहने पर कि इतने संवेदनशील मुद्दे पर आपको कुछ तो बोलना चाहिए। इस पर उनका कहना था कि मैं विवेचना अधिकारी हूं पर अब तक डॉ महेश से मिल नहीं सकी, लेकिन मामला छेड़खानी का था जिस पर उन्होंने जमानत ले ली है।

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