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ग्जिट पोल कितने विश्वसनीय है, यह सवाल हर बार पुछा जाता है। खासकर 2004 में देश में एग्जिट पोल की विश्वसनीयत का सबसे बड़ा झटका लगा था। तब से ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है, जो नतीजों से पहले एग्जिट पोल की सारी कवायद को मात्र टीआरपी का खेल मानते हैं। यहां तक कि चुनाव आयोग भी एग्जिट पोल रुकवाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ता रहा है।
1980 में देश में एग्जिट पोल की परंपरा शुरू हुई। नब्बे के दशक तक देश में दो एजेंसियां ही एग्जिट पोल करती थीं। लेकिन पिछले पंद्रह साल में एग्जिट पोल एजेंसियों की संख्या तेजी से बढ़ते हुए एक दर्जन से ज्यादा हो गई है। इसलिए एग्जिट पोल को टीआरपी और बड़े बिजनस का मौका भी माना जाने लगा है। अब हालत यह है कि दर्जनों एजेंसियां देश की उन्हीं 543 सीटों पर बूथ एग्जिट आंकड़ा इकट्ठा करने का दावा करती है। तब भी सबके आंकड़ों में जमीन आसमान का अन्तर होता है। इतना बड़ा अंतर संकेत है कि संपल कलेक्शन विज्ञान सम्मत नहीं है। कहीं कोई गड़बड़ी है। जब दर्जनों एजेंसियां एक ही काम में लगी है तो उनमें से किसी एक का ही एग्जिट पोल सही निकलना भी विश्वसनीयता पैदा करने की जगह तूक्का ही लगता है। वर्ष 2014 के एग्जिट पोल की बात करे तो आधा दर्जन एजेंसियों में एग्जिट पोल जारी किया था। इनमें से सिर्फ न्यूज24- चाणक्य का अनुमान ही एनडीए के लिए नतीजों के करीब था। हालांकि यूपीए को उसने भी 101 सीटें दी थी जो की सिर्फ 60 सीटों पर सिमट गया था। दूसरी और इन्डिया टुडे- सिसरो, सीएनएन- आईबीएन, टाईम्स नाठ, एबीपी- नीलसन, एनडीटीवी हंसा के अनुमान एनडीए के लिए नतीजों से काफी नीचे और यूपीए के लिए काफी उपर थे। इसी तरह 2019 के चुनाव में भी न्युज 24- टुडे चाणक्य के एग्जिट पोल अनुमान नतीजों के सबसे करीब रहे।
2019 में एक दर्जन के करीब एजेंसियों ने एग्जिट पोल किया था।

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