

हरिद्वार से देहरादून तक बिछ गई सियासी और प्रशासनिक शतरंज
देहरादून: देहरादून की गलियों में अभी बारिश की बूंदें नहीं, लेकिन तबादलों की सरसराहट ज़रूर महसूस की जा सकती है। उत्तराखंड सरकार के गलियारों में डीएम तबादलों की चर्चा अब अटकल नहीं, प्रशासनिक तैयारी में बदल रही है।
चारधाम यात्रा की शुरुआत के वक्त जो तबादला सूची बीच में रुक गई थी, अब उसके पन्ने फिर से पलटे जा रहे हैं। और सवाल सिर्फ नामों के इधर-उधर होने का नहीं है, सवाल है ‘प्रशासनिक फार्मूले’ का, जो इस बार कुछ नए संकेत दे रहा है।
जनपद हरिद्वार जहां गंगा बहती है, कुंभ लगता है और अब शायद एक नया डीएम आने वाला है। सूत्रों की मानें तो किसी पर्वतीय जिले के अनुभवी अफसर को यहां लाया जा सकता है। यह वही जिला है जहां व्यवस्था में स्थायित्व और राजनीतिक संतुलन की कड़ी ज़रूरत होती है। और ध्यान रहे, यह केवल एक जिले की बात नहीं यह सियासत और ब्यूरोक्रेसी के संतुलन का प्रयोगशाला भी है।
बात अगर देहरादून की करे तो जिलाधिकारी संविन बंसल एक शांत, सधे हुए अफसर, जो अब सचिव स्तर पर पहुंच चुके हैं। देहरादून का डीएम बने रहना शायद अब शासन के लिए मुफीद नहीं होगा। संकेत साफ हैं उन्हें शासन में बड़ी जिम्मेदारी मिल सकती है। सचिवालय से छन कर आ रही खबरों पर गौर करे तो कुमाऊं के जिलो में तबादलों की बर्फ अब पिघलने वाली है कई जिले हैं, जहां अफसर वर्षों से टिके हुए हैं। और कई ऐसे अफसर हैं जिन्होंने अभी तक किसी जिले की ज़मीन नहीं नापी। अब सरकार ‘संतुलन’ के नाम पर यह समीकरण बदलना चाहती है। मतलब ये कि ‘नए चेहरों को ज़िम्मेदारी और पुराने चेहरों को बदलाव’ ये नारा साकार हो सकता है। गौरतलब है कि हरीश चंद्र सेमवाल 2005 बैच के अधिकारी 31 मई को रिटायर हो रहे हैं।
सेवा विस्तार की चर्चा तो थी, लेकिन अब लगता है कि संभावना से ज़्यादा, सन्नाटा मिल रहा है आबकारी, खाद्य और सचिव खाद्य की कुर्सी अब नए चेहरे की तलाश में है।
जितेंद्र सोनकर नाम ज़रूर शांत है, लेकिन उनके कंधों पर नियोजन और युवा कल्याण की ज़िम्मेदारी थी।
अब डीओपीटी ने उनका बुलावा भेज दिया है, और वो लौटेंगे अपने मूल विभाग। पीछे छोड़ जाएंगे खाली कुर्सी और संभावनाओं से भरी लिस्ट। कुल मिलाकर यह सिर्फ तबादलों की सूची नहीं, यह उस सिस्टम का एक्स-रे है जिसमें कई चेहरे लगातार टिके हुए हैं, और कई सालों से कतार में खड़े हैं। कुछ कुर्सियों से चिपके हैं, तो कुछ को चांस ही नहीं मिला। तबादले अब नौकरशाही की प्रक्रिया भर नहीं रहे। ये अब एक राजनीतिक और सामाजिक संकेत हैं कि कौन किसके करीब है, कौन कब तक ज़िम्मेदारी में रहेगा, और कौन अगले चुनाव तक पहुंच भी पाएगा या नहीं।
उत्तराखंड की प्रशासनिक गलियों में अब चर्चा है कौन आएगा, कौन जाएगा? और आम जनता बस ये पूछ रही है इस बार डीएम बदलेगा या फिर वही सिस्टम दोहराया जाएगा?