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देहरादून के जंगलों से उठता धुआँ, हॉफ की कुर्सी पर फिर वही पुराना विवाद

देहरादून: देहरादून की हवा इन दिनों सिर्फ ठंड से नहीं, बल्कि वन विभाग की ऊपरी मंज़िलों में उठते प्रशासनिक धुएँ से भी भरी हुई है। राज्य के वन विभाग में हॉफ (हेड ऑफ द फॉरेस्ट फोर्स) इस सर्वोच्च कुर्सी को लेकर फिर वही पुराना संघर्ष, वही पुरानी बेचैनी, और वही पुराना सवाल कि आखिर वरिष्ठता और नियमों की परिभाषा किसके हाथ में है?
ताज़ा प्रकरण में सरकार ने 1993 बैच के आईएफएस रंजन कुमार मिश्र को नया हॉफ नियुक्त कर दिया। वे 1 दिसंबर को विधिवत पदभार भी संभाल चुके हैं। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। क्योंकि इसी राज्य के वरिष्ठ, 1992 बैच के बीपी गुप्ता, जिनकी रिटायरमेंट में केवल 19 दिन बचे हैं, उन्होंने इस फैसले को नैनीताल हाईकोर्ट में चुनौती दी थी जिसे न्यायालय ने य़ह कहकर खारिज कर दिया कि अपनी बात केंद्रीय न्यायाधिकरण में रखे।
विभागीय सूत्र बताते हैं कि हॉफ की नियुक्ति वरिष्ठता से नहीं, चयन से होती है। इसके लिए बाकायदा डीपीसी (विभागीय पदोन्नति समिति) बैठती है। कागज़ों की छानबीन, सर्विस रिकॉर्ड की परतें, और सेवानिवृत्ति की तारीखें सब देखा जाता है। बताया जाता है कि डीपीसी अक्सर इस बात का विशेष ध्यान रखती है कि नया हॉफ तुरंत रिटायर न होने वाला हो। तर्क यह दिया जाता है कि इतना बड़ा पद संभालने वाले अधिकारी को विभाग को समझने और निर्णय लेने के लिए कुछ समय मिलना चाहिए। लेकिन इस बार मामला कुछ और है। क्योंकि जिस अधिकारी ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया है, वे खुद 31 दिसंबर 2025 को रिटायर होने वाले हैं। ऐसे में सवाल और पेचीदा हो जाता है क्या यह लड़ाई सिद्धांत की है, वरिष्ठता की है या कुर्सी की प्रतिष्ठा की? वन विभाग में यह पहली बार नहीं हो रहा। इससे पहले आईएफएस राजीव भरतरी को हटाकर एक जूनियर अधिकारी को हॉफ बनाया गया था। मामला कोर्ट पहुँचा, फिर सुप्रीम कोर्ट गया, और आखिरकार समाधान यह निकला कि भरतरी के लिए एक अतिरिक्त हॉफ का पद ही सृजित कर दिया जाए यह शर्त रखते हुए कि उनके रिटायर होते ही वह पद खत्म हो जाएगा।
अब फिर वही पुरानी कहानी नए पात्रों के साथ सामने है।
समस्या यह नहीं कि कौन बनेगा हॉफ। समस्या यह है कि इस पद के लिए होने वाली खींचतान हर बार ठीक उसी समय भड़कती है जब कोई अधिकारी रिटायर होने वाला होता है। फिर वही सवाल सामने आता है जब पद संभालने के बाद अधिकारी के पास काम करने को कुछ ही दिन बचते हों, तो आखिर इतनी तात्कालिकता क्यों? क्या यह केवल प्रतिष्ठा की लड़ाई है? या सत्ता की उन परतों का मामला है जहां निर्णय लेने से पहले कई और अनदेखी शक्तियाँ काम करती हैं?
कुल मिलाकर संविधान हर नागरिक को अपनी बात कहने का अधिकार देता है। अधिकारी भी इसी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए अदालत का दरवाज़ा खटखटा रहे हैं। पर जनता पूछ रही है क्या राज्य के जंगलों को बचाने के लिए जिस कुर्सी की ज़रूरत है, उसे लेकर का यह संघर्ष कभी खत्म होगा? क्योंकि जंगल की आग तो दिखती है, लेकिन विभाग के अंदर की आग वह अक्सर देर से दिखाई देती है, और ज़्यादा नुकसान करती है।

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