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हल्द्वानी/ दिल्ली: दिल्ली की ठंडी सुबह में सुप्रीम कोर्ट के बाहर खड़े लोग आज फिर वही खबर लेकर लौटे बनभूलपुरा रेलवे भूमि प्रकरण की सुनवाई टल गई है। 15 नम्बर का एक और मामला लंबा खिंचा, और बनभूलपुरा की फाइल फिर अगले 15 दिसंबर पर सरका दी गई। कागज़ आगे बढ़ा, और फैसला फिर पीछे रह गया। प्रशासन के लिए यह टलाव शायद राहत है और बनभूलपुरा के लोगों के लिए एक और मोहलत। लेकिन राहत और मोहलत दोनों ही कितने दिन की चीज़ें होती हैं, यह इस इलाके से बेहतर कोई नहीं जानता।
यह कहानी नई नहीं है। साल 2022 में दाखिल पीआईएल से शुरू होकर 2023 के हाईकोर्ट आदेश तक, रेलवे की 30 हेक्टेयर जमीन को खाली कराने की प्रक्रिया शुरू हुई थी। दस्तावेज़ों में यह सिर्फ जमीन है कागज़ों पर दर्ज कुछ हेक्टेयर। लेकिन उन हेक्टेयरों में लोगों की पीढ़ियों का घर, यादें और एक पूरी जिंदगी बसी थी। विरोध हुआ, धरने लगे, और अंततः मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया। तब से शहर की सांसें कोर्ट की तारीखों में अटकी हुई हैं। प्रशासन कह रहा है कि कोर्ट जो कहेगा, वही होगा। कानून का पालन होगा। लेकिन बनभूलपुरा के लोग पूछ रहे हैं क्या कानून सिर्फ घर गिराने से ही लागू होता है? क्या विकास किसी की नींव हिलाए बिना नहीं आता? इस इलाके का दर्द सिर्फ ज़मीन का विवाद नहीं है। फरवरी 2024 की वह भयावह रात अभी भी बनभूलपुरा की हवा में तैरती है जब नजूल भूमि पर बने मदरसे का ध्वस्तीकरण, अचानक भड़के बवाल, जलता थाना, घायल पुलिसकर्मी, मीडिया कर्मी, और वह चार मौतें, शहर पर लगा कर्फ्यू और लोगों की स्मृति में दर्ज गहरा भय। प्रशासन भी जानता है कि जख्म भरने में बहुत समय लगता है, लेकिन उभरने में बस एक पल। हल्द्वानी आज शांत दिखाई देता है। दुकानें खुली हैं, लोग आते-जाते दिखते हैं, लेकिन भीतर कहीं एक अदृश्य सा तनाव, एक पुरानी घबराहट आज भी टहल रही है। अब सबकी नजरें फिर सुप्रीम कोर्ट पर हैं, 15 दिसंबर पर। एक तारीख, जो सिर्फ एक कोर्ट का फैसला नहीं, बल्कि सौ से ज्यादा गलियों की सुबह और रात तय कर सकती है। बनभूलपुरा के लोग इंतज़ार कर रहे हैं कानून के संतुलन का, प्रशासनिक समझदारी का, और शायद अपनी जिंदगी में थोड़ा सा सुकून लौट आने का। सुनवाई टल गई है, लेकिन बेचैनी अभी भी खड़ी है उन्हीं पटरियों के किनारे।

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