

उत्तराखंड की सरकारी शिक्षा व्यवस्था का रिपोर्ट कार्ड लाल स्याही से भरा है
देहरादून: ये खबर किसी फिल्म की स्क्रिप्ट नहीं है। न ही ये किसी व्यंग्य लेख का हिस्सा है। ये उत्तराखंड के नैनीताल जिले के एक सरकारी स्कूल की सच्चाई है, जो हमें मजबूर करती है पूछने पर क्या शिक्षक होने से शिक्षा सुनिश्चित होती है? जनपद नैनीताल के ओखलकांडा ब्लॉक भद्रकोट में स्थित राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में पढ़ाई की स्थिति देखकर आंखें शर्म से झुक जाएँगी। इस स्कूल में 6 शिक्षक, 1 क्लर्क, 1 भोजनमाता और सिर्फ 7 छात्र। अब आप सोचेंगे कि इतने संसाधनों के साथ तो पढ़ाई का स्तर बहुत ऊँचा होगा। लेकिन झटका तब लगता है जब पता चलता है कि कक्षा 10 में एकमात्र छात्र बोर्ड परीक्षा में फेल हो गया। 19 अप्रैल को उत्तराखंड बोर्ड के परिणाम जारी हुए। नैनीताल जिले का यह स्कूल सुर्खियों में आ गया। कोई स्कैंडल नहीं, बस एक फेल छात्र की रिपोर्ट कार्ड ने पूरी व्यवस्था की पोल खोल दी। शिक्षा विभाग हरकत में आया। मुख्य शिक्षा अधिकारी गोविंद राम जायसवाल मौके पर पहुँचे। छात्र से बात की। कॉपियाँ देखीं। निष्कर्ष निकला छात्र विशेष आवश्यकता वाला है। उसका मानसिक और शारीरिक विकास सामान्य नहीं रहा। पिता ने भी पुष्टि की। अब सवाल ये है क्या ये स्कूल इस छात्र के लिए उपयुक्त था? क्या शिक्षक उसके लिए प्रशिक्षित थे? क्या यह महज आंकड़ों का खेल था शिक्षक हैं, बच्चे हैं, और सब सिस्टम में दर्ज है? बता दे कि यह स्कूल एक दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्र में है। आसपास के 5-7 किमी के दायरे में अन्य इंटर कॉलेज हैं। छात्र संख्या धीरे-धीरे घटती रही। कभी 7 छात्र पढ़ते थे, अब संख्या 12 हो गई है। कक्षा 10 में अब 3 छात्र हैं। फेल हुआ छात्र भी दोबारा पढ़ रहा है। गांव-गांव जाकर कक्षा 5 पास बच्चों को लाने के निर्देश दिए गए हैं।
लेकिन सवाल यह नहीं कि बच्चे आएंगे या नहीं। सवाल है कि ऐसे स्कूल में जब बच्चे आएंगे तो सीखेंगे क्या? सरकारी स्कूलों का ये हाल किसी एक गांव की कहानी नहीं। ये रिपोर्ट कार्ड है उस सिस्टम का जो सिर्फ इमारतों, पोस्टिंग और हाजिरी तक सीमित है। जहाँ शिक्षक मौजूद हैं, लेकिन ज़रूरत संवेदनशीलता और समझ की है। जहाँ शिक्षा ‘शासन का काम’ बन गई है, ‘संकल्प का लक्ष्य’ नहीं। कुल मिलाकर अगर एक शिक्षक दर्जनों बच्चों को सफल बना सकता है, तो सात शिक्षक मिलकर एक बच्चे को क्यों नहीं संवार सके? क्या हम शिक्षा को सिर्फ पदों और आंकड़ों तक सीमित रखेंगे, या फिर सचमुच बच्चों को शिक्षित करने की कोशिश करेंगे?





