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देहरादून की विधानसभा में 25 साल का उत्सव, लेकिन बहस विकास की नहीं पहाड़, मैदान और पहचान की रही

देहरादून की ठंडी हवा में इस बार सर्दी नहीं, सियासत गरम थी। मौका था उत्तराखंड के 25 साल पूरे होने का। राज्य का जन्म हुआ था विकास के वादे के साथ पलायन रुकेगा, रोज़गार आएगा, शिक्षा और स्वास्थ्य सुधरेंगे। लेकिन 25 साल बाद जब विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया गया ताकि उस सफ़र का हिसाब हो, तो तीन दिन की कार्यवाही में वही पुरानी कहानी दोहराई गई बहस कम, बयानबाज़ी ज़्यादा। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने उद्घाटन किया। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड ने विकास और शौर्य की नई मिसालें गढ़ी हैं मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने विकसित उत्तराखंड का सपना दिखाया। बातें बड़ी थीं, उम्मीदें और बड़ी। लेकिन जैसे ही विपक्ष खड़ा हुआ, माहौल का तापमान बढ़ गया।
कांग्रेस के भुवन कापड़ी ने कहा विधायक निधि से जारी कार्यों में 15 प्रतिशत तक कमीशनखोरी हो रही है। बोले राज्य जवान हुआ, लेकिन भ्रष्टाचार भी जवान हो गया। बस, इतना कहना था कि सत्ता पक्ष की बेंचें गरजने लगीं। शोर, आरोप, पलटवार। भाजपा विधायक विनोद चमोली ने सदन में कहा, मैं उत्तराखंडी हूं, आप लोग हैं? यानी विकास की बहस के बीच अचानक यह सवाल कि कौन असली उत्तराखंडी है। विपक्ष भड़क गया क्या विधानसभा अब पहाड़ बनाम मैदान का अखाड़ा है? तीन दिन का सत्र उसी में उलझता चला गया। कांग्रेस बोली यह राज्य को बांटने की कोशिश है। भाजपा ने जवाब दिया यह पहचान की चर्चा है, राजनीति नहीं। विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूड़ी भूषण को बीच में दखल देना पड़ा यह सत्र विकास पर चर्चा के लिए बुलाया गया है, जाति या धर्म पर नहीं। लेकिन सदन में शांति, देहरादून की सड़क जितनी देर ही रही। सदन में सवाल उठे पहाड़ों से पलायन क्यों नहीं रुक रहा? स्कूलों में शिक्षक क्यों नहीं हैं? अस्पतालों में डॉक्टर क्यों नहीं? लेकिन जवाबों में सिर्फ वादे थे, आंकड़े नहीं रोज़गार पर सरकार ने कहा नीतियां बन रही हैं। कब बनेंगी, कैसे लागू होंगी यह नहीं बताया। स्वास्थ्य मंत्री ने कहा टेलीमेडिसिन पर काम चल रहा है। लेकिन पहाड़ों में एंबुलेंस अब भी बंद हैं। तीन दिन का सत्र खत्म हुआ, लेकिन विकास की दिशा तय नहीं हुई। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के पास सवाल थे, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं। कभी हिंदू-मुस्लिम पर चर्चा, कभी पहाड़-मैदान पर। राज्य की 25वीं वर्षगांठ पर विधानसभा किसी मंथन की जगह राजनीतिक मंच बन गई।
उत्तराखंड के लोग अब भी वही उम्मीद लगाए बैठे हैं कि 26वें साल में शायद नेता विकास पर बात करेंगे। शायद कोई यह पूछेगा कि पहाड़ से लोग क्यों जा रहे हैं? कि गांवों में स्कूल बंद क्यों हैं? कि नौजवान देहरादून, दिल्ली और दुबई क्यों जा रहे हैं? पर अगर बहस यूं ही पहाड़-मैदान के बीच झूलती रही, तो विकसित उत्तराखंड का सपना हर साल के भाषण में ही रह जाएगा क्योंकि सियासत की गर्मी में विकास की बर्फ पिघल नहीं पाती, बस जम जाती है।

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