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चौराहों पर चर्चा है, चाय की दुकानों पर लहराती भाप के साथ नाम लिया जा रहा है नेताजी का। जी हां, वही नेताजी, जो वर्षों से ‘संघर्ष’ में थे, जिन्हें ‘कद्दावर’ कहते-कहते लोगों की गर्दन थक गई थी, लेकिन पद नहीं मिला था। अब जाकर बड़ी मुश्किल से कुर्सी मिली है, तो विपक्षी तीर चलाने लगे हैं निशाने पर वही पुराने किस्से, वही भूले-बिसरे आरोप।
कहावत है कि जब तक हांडी नहीं चढ़ती, कोई ढक्कन नहीं खोलता। नेताजी की हांडी अब चढ़ी है, तो पुरानी रोटियां भी सेंकने लगी हैं। लेकिन नेताजी कोई कच्ची मिट्टी के बने नहीं हैं। मोटी चमड़ी वाले हैं, बड़बोले हैं, और बिंदास बोलने में भरोसा रखते हैं। प्रेस वाले कुछ भी छापें, विपक्ष वाले कुछ भी चिल्लाएं, उन्हें फर्क नहीं पड़ता। खुद कहते हैं रास्ते में गड्ढे आते हैं, कीड़े-मकोड़े के लिए कोई गाड़ी थोड़ी न रोकता है।
चौराहे पर बैठे लोग चाय की चुस्की के बीच कह रहे हैं नेताजी की आत्मविश्वास तारीफ के काबिल है, लेकिन थोड़ी हद में। कहीं ये आत्मविश्वास ओवरकॉन्फिडेंस न बन जाए। वो भी ऐसे समय में, जब आरोपों की फेहरिस्त में से कुछ नए और प्रमाणिक लगने लगे हैं।
अब सवाल ये है कि नेताजी को कोई मति देगा? कोई कान में धीरे से कहेगा साहब, अब समय है पुराने पाप धोने का, नहीं तो गाड़ी की रफ्तार कहीं गड्ढे में ही न उतर जाए।
दरअसल, आजकल की राजनीति में पद मिलना एक बात है, उसे टिकाए रखना दूसरी। लोग भूलते नहीं हैं, सोशल मीडिया याद दिलाता रहता है। और जब पद मिला है, तो ज़िम्मेदारी भी बढ़ती है केवल बड़बोलेपन से नहीं, बल्कि विवेक से।
लेकिन नेताजी के समर्थक कहते हैं साहब का स्टाइल ही ऐसा है, वो जहां खड़े हो जाते हैं, खबर वहीं से शुरू होती है।
और विरोधी कहते हैं खबर वहीं खत्म होनी चाहिए, जहां जवाबदेही शुरू होती है। तो फिलहाल चर्चा चौराहे पर जारी है नेताजी पद पर हैं, विपक्षी तने खड़े हैं, और जनता? वो देख रही है अभी तमाशा बाकी है।

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