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नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के लिए कितना ही प्रासंगिक क्यों न रहे हो परंतु उनके राजनैतिक जीवन का हासिल यही है कि उन्हें मीडिया ने पलटी मार या पल्टूराम का खिताब दे डाला है। नो बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले नितीश कुमार अलग-अलग अवसरों पर कभी यूपीए समर्थित मुख्यमंत्री बने तो कभी भाजपा व एनडीए समर्थित तो कभी कांग्रेस आरजेडी के साथ महागठबंधन बनाकर।
दुर्भाग्यवश डॉ राजेंद्र प्रसाद, जय प्रकाश नारायण व कर्पूरी ठाकुर की कर्मभूमि वाले इसी राज्य में सत्ता से चिपके रहने में महारथ रखने वाले नेता राम विलास पासवान को भी राजनीति का मौसम वैज्ञानिक कहा जाता था। कहने को यह तो नेता स्वयं को धर्मनिरपेक्ष राजनीति का पैरोकार बताते है। परन्तु महज सत्ता की मलाई खाने के लिए इन नेताओं ने सांप्रदायिक शक्तियों से हाथ मिलाने में कभी परहेज नहीं किया। आज देश में दक्षिणपंथियों का जो विस्तार देखने को मिल रहा है। उसमें देश के ऐसे तमाम गिरगिटों की भी अहम भूमिका हैं, जिन्होंने सिर्फ और सिर्फ सत्ता की खातिर बार-बार अपने जमीर का सौदा किया। पिछले दिनों जिन परिस्थितियों में और जिस समय नीतीश कुमार ने आरजेडी-कांग्रेस का साथ छोड़ एक बार फिर भाजपा के साथ मिलकर मुख्यमंत्री पद की शपथ नौंवी बार ली हैं, उनके इस अप्रत्याशित कदम ने उन्हें पूरी तरह बेनकाब कर दिया है। आश्चर्य की बात तो यह है कि वैचारिक रूप से भी नीतिश का इस समय भाजपा से गलबहियां करने का कोई औचित्य नही था। जाति जनगणना जैसे संवेदनशील विषय पर भाजपा जेडीयू आमने सामने थे। जबकि नितीश ने आनन फानन में बिहार में जाति जनगणना भी करा डाली। कहां तो नितीश कुमार के ही प्रथम प्रयास से इंडिया गठबंधन वजूद में आया। नीतिश की पहल पर ही 23 जून 2023 को 18 विपक्षी दलों की सबसे पहली बैठक पटना में ही हुई थी। यहां तक कि उन्हें इंडिया गठबंधन का संयोजक तक बनाने की चर्चा चली परंतु अचानक ऐसा क्या हुआ कि उन्हें राजनैतिक व वैचारिक धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर होना पड़ा? कहां तो अगस्त 2022 में एनडीए से अलग होने के बाद नीतीश कुमार यह कहते फिर रहे थे – कि वे मर जाना पसंद करेंगे लेकिन भाजपा के साथ लौटना पसंद नहीं करेंगे। उन्होंने एनडीए से अलग होते समय भाजपा पर जेडीयू को कमजोर करने का आरोप भी लगाया था। उधर भाजपा की तरफ से भी गृहमंत्री अमित शाह का उसी समय बयान आया था कि नीतीश कुमार के लिए एनडीए के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो चुके है। परन्तु इन सभी कथनों को दरकिनार करते हुए दोनों ने ही एक दूसरे से हाथ मिला लिया ? हालांकि जेडीयू के कुछ नेताओं की तरफ से इस घटनाक्रम का दोष कांग्रेस पर मढ़ने की हास्यास्पद कोशिश की जा रही है। परंतु दरअसल इस बार का पाला बदल नीतीश कुमार पर बदनामी के साथ साथ अवसरवादिता की पराकाष्ठा की भी छाप छोड़ जाएगा। आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी तो यहां तक कहते है कि नीतिश के बारे में राजनैतिक विशेषज्ञ कुछ नहीं बता सकता बल्कि उनके बारे में तो मनोचिकित्सक ही बता सकता है। नीतीश ने तो स्वयं ही विपक्ष के लोकतंत्र बचाने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए थे। उन्हें तो शर्म आनी चाहिए, यह धोखा देना है। यदि उन्हें कोई शिकायत थी तो वे बात कर सकते थे। कुछ राजनैतिक विशेषज्ञ इस पूरे नाठकीय घटनाक्रम के पीछे कुछ और ही वजह बता रहे है। कहा जा रहा है कि जेडीयू के नेताओं व उनके निकट सहयोगियों पर जांच एजेंसियों का कसता शिकंजा इसकी प्रमुख वजह है। मिसाल के तौर पर प्रवर्तन निदेशालय द्वारा गत वर्ष सिंतबर में जेडीयू विधान पार्षद राधाचरण सेठ की मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में हुई गिरफ्तारी, बाद में पिछले ही साल नीतीश कुमार के एक और निकट सहयोगी जेडीयू विधायक और मंत्री विजय चौधरी के साले अजय सिंह उर्फ कारू सिंह के आवास पर आयकर विभाग की छापेमारी, जेडीयू के करीबी माने जाने वाले एक और ठेकेदार गब्बू सिंह के ठिकानों पर आयकर विभाग द्वारा की गयी छापेमारी, बेगसराय में बिल्डर कारू सिंह के आवास पर की गयी छापेमारी आदि केंद्र सरकार के ऐसे शिकंजे थे, जिनके बाद यह संभावना बढ़ने लगी थी कि अब यह जांच नीतीश कुमार के कुछ करीबी अधिकारियों तक भी पहुंच सकती है। माना जा रहा है कि नीतीश के मन में भी यह डर जरूर रहा होगा कि कहीं इन्हीं मामलों में अब उनसे भी पूछताछ न शुरू हो जाए? वैचारिक रूप से भी नीतीश का इस समय भाजपा से गलबहियां करने का काई औचित्य नहीं था। क्योंकि जाति जनगणना जैसे संवेदनशील विषय पर भाजपा जेडीयू आमने सामने थे। जबकि नीतीश को जाति जनगणना को लेकर इतने उतावले थे कि उन्होंने आनन फानन में बिहार में जाति जनगणना भी करा डाली। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने जैसे नीतीश कुमार की महत्वपूर्ण मांग आज तक भाजपा ने पूरी नहीं की। ऐसे में यदि नीतीश को जांच का भय नहीं था तो आखिर क्या वजह थी कि उन्होंने रंग बदलने के अपने ही कीर्तिमान को फिर से तोड़ दिया? क्या ऐसे अवसरवादी, सिद्धांतविहीन, सत्ता चिपकू व स्वार्थी राजनीतिज्ञों को भारतीय राजनीति के आदर्श नेताओं में गिना जा सकता है?

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निर्मल रानी

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