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आज की राजनीति असल मुद्दों से भटक गई है। मतदाता पैसे की चकाचौंध में हाशिये पर चला गया है। एक दौर था, जब लोकतंत्र का पर्व उत्साह के साथ मनाया जाता था। किसी भी मोहल्ले से गुजरिये, फिजा यह संकेत दे दिया करती थी कि यहां के लोग किस प्रत्याशी को समर्थन कर रहे हैं। गली से गुजरते बच्चों के सीने पर लगे बिल्ले एक अलग ही छटा बिखेरते थे। बदलते समय के साथ यह सब चीज गौण होती चली गई। लोकतंत्र सिमटता चला गया और आम मतदाता के मुद्दे राजनीति से दूर होकर रह गए। एक समय था जब मतदाता प्रत्याशी का चयन गुण दोष के आधार पर किया करते थे। आज मतदाताओं से लेकर राजनीतिक दल तक यह मान चुके हैं कि मतदान अब पार्टी आधारित होकर रह गया है। इसी कारण लोग भी चुनाव की मुख्य गतिविधियों से दूर हो गए हैं। कहने को कहा जाता है कि अब मतदाता साइलेंट हो गया है। जबकि वास्तविकता यह है कि मतदाताओं के मन को टटोलना के लिए पहले के स्तर का प्रयास भी नहीं हो पाता है। पहले परस्पर विरोधी प्रत्याशी भी एक दूसरे के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाया करते थे। यहां तक कि विरोधी प्रत्याशी के घर पहुंच कर बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद लिया जाता था। आज स्थिति इतनी बदल चुकी है कि जहां यह पता चल जाए कि यहां के लोग दूसरे प्रत्याशी के साथ जुड़े हुए हो सकते हैं, उन मोहल्ले में जाकर वोट तक मांगने की जरूरत नहीं समझी जाती। अव्वल तो पहले की भांति घर-घर जाकर हाथ जोड़कर वोट मांगने का प्रचलन ही समाप्त हो गया है। उसका स्थान रोड शो जैसी चकाचौंध ने ले लिया है। लोकसभा विधानसभा के चुनाव के बात छोड़ दीजिए, पार्षद तक के चुनाव में बेशुमार पैसा खर्च होने लगा है। चुनाव महंगा होने के कारण एक आम आदमी चुनाव लड़ने के बारे में सोच तक नहीं पता है। चुनाव में पैसे का इतना ज्यादा प्रयोग आदर्श लोकतंत्र के लिए अच्छा संदेश नहीं है।

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