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सेवा नियमावली या सेवा विघटन नीति?, जब संवैधानिक मूल्यों को तबादलों की चक्की में पीसा गया

राजेश सरकार
देहरादून/ रामनगर: जब किसी संस्था में जाति का दायरा काम से बड़ा हो जाए, तब वह संस्था नहीं, किसी विशेष वर्ग की जागीर बन जाती है। उत्तराखंड वन विकास निगम आज उसी मोड़ पर खड़ा है, जहाँ नियुक्तियाँ कागज़ पर नहीं, पहचान पर होती हैं और पहचान जाति की।
उत्तराखंड के वन निगम में काम कर रहे छह वरिष्ठ अधिकारियों राम कुमार, अशोक कुमार, राकेश कुमार, विजयपाल, प्रमोद कुमार और जगदीश आर्य ने एक संयुक्त पत्र जारी कर संस्थान की जातिवादी दीवारों को उजागर कर दिया है। इस पत्र में जो लिखा है, वो सिर्फ ट्रांसफर की कहानी नहीं है, वो एक व्यवस्था की उस बीमारी की रिपोर्ट है, जहाँ पद नहीं, पहचान तय करती है आपका कार्यक्षेत्र।
यहां बता दें कि इस विभाग में पिछले दस महीनों में दर्जनों ट्रांसफर ऐसे हुए हैं जिनमें न केवल नियमों को किनारे किया गया, बल्कि इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि अनुसूचित जाति के अधिकारी महत्वपूर्ण प्रभागों से दूर रहें। जिन्हें सालों का अनुभव है, उन्हें ऐसे इलाकों में भेजा गया जहाँ काम से ज़्यादा हताशा मिलती है।
राकेश कुमार का पूर्वी रामनगर से पिथौरागढ़ तबादला, हरीश पाल को रामनगर से कोटद्वार फेंका जाना ये सिर्फ नाम नहीं, ये उदाहरण हैं उस मानसिकता के जो तय करती है कि कौन ‘कहाँ’ रहेगा, और क्यों रहेगा। अदालतों और आयोगों से दखल के बाद कुछ की वापसी तो हुई, लेकिन सवाल वहीं खड़ा है कि तबादला हुआ तो हुआ क्यों ?
वन निगम सेवा नियमावली-2022 कहती है कि 36 स्वीकृत प्रभागों में 24 निगम के अधिकारियों के लिए और 12 पद प्रतिनियुक्त अधिकारियों के लिए हैं। लेकिन आज की तारीख में 14 से अधिक प्रतिनियुक्त अधिकारी काम कर रहे हैं। कई को 2-2 बड़े प्रभाग थमा दिए गए हैं जिनमें लॉगिंग और विक्रय जैसे प्रमुख विभाग है, जो सीधे राजस्व और पारदर्शिता से जुड़े हुए हैं।
अब सवाल यह है कि जब एक अधिकारी के पास दो अहम विभाग हो सकते हैं, तो फिर जिन अधिकारियों ने सालों इस निगम में काम किया, उन्हें क्यों हाशिये पर डाल दिया गया? बहरहाल जो पत्र सामने आया है, उसमें जो लिखा गया है वो किसी ऑफिस के भीतर होने वाली गुपचुप राजनीति नहीं, बल्कि खुला उत्पीड़न है। अनुसूचित जाति के अधिकारियों को ‘कमतर’, ‘अप्रासंगिक’ और ‘असुविधाजनक’ प्रभागों में फेंकना यह सिर्फ सेवा के नियमों का उल्लंघन नहीं, बल्कि संविधान की आत्मा पर चोट है। गौरतलब है कि इस मामले में न्यायालय ने 11 फरवरी 2025 को आदेश दिया था कि निगम तीन महीने में ट्रांसफर नीति बनाए। आज जुलाई बीतने को है न कोई नीति, न कोई जवाबदेही। क्या यह अदालत की अवमानना नहीं?
पीड़ित अधिकारियों का कहना है कि अगर उनकी जायज मांगों को न सुना गया, तो वह उच्च न्यायालय और अनुसूचित जाति आयोग की शरण समक्ष लेने के लिए बाध्य होंगे।
कुल मिलाकर यह उस हर सरकारी संस्था की कहानी है जहाँ सेवा नियमों की किताब को ‘कौन है?’ के सवाल पर बंद कर दिया जाता है। जहाँ योग्यता जाति से छोटी हो जाती है, और अनुभव ‘सिस्टम के अपने लोग’ तय करते हैं। यहां यह सवाल सिर्फ सरकार से नहीं है, पूरे तंत्र से है, कि क्या जातिगत न्याय सिर्फ किताबों में है? क्या सामाजिक न्याय का सपना तबादलों की फाइल में कहीं दब गया है? और अगर ऐसा है तो फिर ये सरकारें किस संविधान की शपथ लेकर काम कर रही हैं?
यह खबर एक आइना है न सिर्फ उत्तराखंड के वन निगम का, बल्कि उस पूरे सिस्टम का जहाँ जाति अब भी हाशिये पर खड़े लोगों का भविष्य तय करती है।

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तथ्यविहीन है शिकायत

सभी अधिकारियों की नियुक्तियां उनकी पदानुसार वरिष्ठता, अनुभव और प्रभाग की संवेदनशीलता के आधार पर की गई हैं, और जो पत्र शिकायत के रूप में भेजा गया है, वह तथ्यविहीन है।

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जेएस पांडेय,
एमडी
उत्तराखण्ड वन विकास निगम

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