

हल्द्वानी: हल्द्वानी की हवा इन दिनों कुछ ज़्यादा ही मीठी लगती है। यह मिठास पहाड़ों से उतरती धूप की नहीं, बल्कि एक फल की है और उस फल को बेचने वाले इंसान की भी। हर सुबह जब हल्द्वानी के रामपुर रोड और आस-पास की गलियों में एक आवाज़ गूंजती है ‘पहाड़ी केले लेलो…’, तो यह कोई सामान्य सब्ज़ी मंडी की आवाज़ नहीं लगती। इसमें एक लय है, एक अपनापन है, और सबसे ज़्यादा एक कहानी है।
रंजीत सरकार। उम्र की उस ढलान पर हैं, जहाँ आमतौर पर लोग आराम कुर्सी और शाम की चाय को अपना साथी बना लेते हैं। मूल रूप से कोलकाता के रहने वाले रंजीत बाबू ने रिटायर होकर केले को अपने जीवन का हिस्से के रूप में चुना। सेंचुरी पेपर मिल से सेवानिवृत्त हुए, लेकिन मन अभी भी सक्रिय है। शायद इसीलिए उन्होंने एक छोटा वाहन लिया, और उसमें लोड कर ली उम्मीद केले के रूप में। रंजीत की सबसे बड़ी पूंजी उनका भरोसा है।
लोग उन्हें उनकी आवाज़ से पहचानते हैं जैसे पुराने ज़माने में रेडियो पर कोई पसंदीदा आवाज़ आती थी।
केला ऐसा फल है, जो हमारे देश की तरह है थोड़ा संवेदनशील, जल्दी पकने वाला, लेकिन भीतर से मज़बूत। विटामिन, मिनरल्स, और त्वरित ऊर्जा से भरपूर यह फल पाचन में सहायक है, और मेहनत करने वाले हर इंसान के लिए एक संपूर्ण आहार। हाँ, यह जल्दी खराब होता है। लेकिन शायद यही इसकी सबसे बड़ी खूबी भी है यह सिखाता है कि ताजगी बनाए रखने के लिए हर दिन मेहनत करनी पड़ती है। और यही काम रंजीत सरकार करते हैं।
बिंदुखत्ता जैसे इलाके अब सिर्फ नाम भर नहीं हैं ये उस बदलाव का चेहरा हैं, जो चुपचाप अपने खेतों में पसीना बहा रहा है। पहाड़ी केले की व्यावसायिक खेती यहाँ बढ़ रही है। किसान अब सिर्फ परंपरा से नहीं, समझदारी से खेती कर रहे हैं। और केला तो ऐसा पेड़ है, जो कटने के बाद भी नई शाखा देता है। क्या यह किसी समाजशास्त्रीय प्रतीक से कम है? कटने के बाद भी नया जीवन यही तो असली विकास है।
रंजीत सरकार की तरह के लोग, और उनके जैसे छोटे-छोटे प्रयास, हमें बार-बार याद दिलाते हैं कि बदलाव कहीं ऊपर से नहीं आता।
बदलाव नीचे से आता है ज़मीन से, खेतों से, और सबसे ज़्यादा इंसान के इरादे से। आज हल्द्वानी के लोग पहाड़ी केले खा रहे हैं, लेकिन असल में वे एक सोच खा रहे हैं आत्मनिर्भरता की, स्वाभिमान की, और मेहनत की मिठास की। और अगली बार जब आपको वह आवाज़ सुनाई दे ‘पहाड़ी केले लेलो…’, तो ज़रा ठहरिएगा। वह सिर्फ केला बेचने की आवाज़ नहीं है। वह एक उम्रदराज़ इंसान की जिजीविषा है। एक शहर की सुबह है। और एक देश के ग्रामीण अर्थशास्त्र की सबसे सस्ती, लेकिन सबसे गहरी कहानी है।