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उत्तरकाशी: धरती कांपी नहीं थी, पर सब कुछ हिल गया था। गंगोत्री यात्रा का एक प्रमुख पड़ाव, धराली अब कोई पड़ाव नहीं रहा, एक त्रासदी बन गया है। जहां एक वक़्त तीर्थयात्री चाय की चुस्कियों में सांसें लेते थे, आज वहां आहें हैं। वहां अब कोई चाय नहीं परोसता, केवल सन्नाटा है ऐसा सन्नाटा जो पत्थरों के शोर और पानी के थपेड़ों से बना है।
मंगलवार दोपहर करीब 1:45 बजे, खीरगाड़ में बादल फटा। खबरें कहेंगी ये एक ‘प्राकृतिक आपदा’ थी। लेकिन हम यह क्यों नहीं कहते कि यह एक चेतावनी थी? चेतावनी कि पहाड़ों को हम केवल रास्ता समझ बैठे हैं, मंज़िल नहीं। और जब पहाड़ जवाब देते हैं, तो वे शब्दों में नहीं, जलप्रलय में बोलते हैं।
सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे वीडियो में साफ दिखता है वह नदी नहीं थी, एक दौड़ता हुआ तूफान था। मलबा, पत्थर, पानी, और उनके साथ आती चीत्कारें। होटल जमींदोज़ हो गए, लॉज धराशायी। कुछ लोग भागे, कुछ भाग नहीं पाए। और जो नहीं भाग पाए, उनकी कहानियाँ अब मलबे के नीचे दबी हैं।
धराली की गलियों में अब चाय की भाप नहीं उठती, अब वहां धूल है, मिट्टी है, और कुछ नाम हैं जो अब पुकारे नहीं जाते।
दून विश्वविद्यालय के नित्यानंद हिमालयन रिसर्च सेंटर के प्रोफेसर डीडी चुनियाल कहते हैं यह आपदा नहीं थी, यह एक परिणाम था। मानवीय हस्तक्षेप का परिणाम। जिस पुराने धराली गांव को जलप्रलय छू भी नहीं सकी, वहीं नया धराली बह गया। क्यों? क्योंकि हमने नदी के रास्ते को रोक दिया था। खीरगंगा, जो वर्षों से नए फ्लडप्लेन बनाती रही, उसे मजबूर कर दिया गया कि वह एक उल्टी दिशा में बहे। सोचिए, एक नदी उत्तर की तरफ बहने को मजबूर हो जाए, यह केवल भूगोल का नहीं, हमारे लालच का नक्शा है।
फ्लडप्लेन पर होटल बने, बाजार खड़े हुए, और खीरगंगा अपने स्वाभाविक पथ से भटक गई। जब मंगलवार को उसने अपनी दिशा सुधारी, तो वह गुस्से में थी। और उसका गुस्सा धराली के बाजार में तबाही बनकर उतरा।
आज धराली एक जगह नहीं, एक सबक है। सबक यह कि पहाड़ रास्ते नहीं होते वे जीवन होते हैं। और जीवन के साथ खिलवाड़ का अंत हमेशा खामोशी में होता है।
धराली की खामोश गलियां आज यही कह रही हैं कि जो नदी की धारा रोकते हैं, वे केवल पानी नहीं, विनाश भी रोकते हैं और जब वह टूटता है, तो सब बहा ले जाता है।

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