

डॉ सुशीला तिवारी हॉस्पिटल में उपनल कर्मचारियों का कार्य बहिष्कार
हल्द्वानी: उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में स्थित सबसे बड़े सरकारी अस्पताल, डॉ. सुशीला तिवारी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल से एक और ख़बर आई है और ये ख़बर एक दस्तावेज़ है उस खामोशी की, जिसे हमने ‘सरकारी सिस्टम’ नाम दे रखा है।
सोमवार को यहां कार्यरत लगभग 700 उपनल कर्मचारी हड़ताल पर चले गए। हाथों में तख्तियाँ, आँखों में ग़ुस्सा और दिल में एक ही सवाल कब तक?
20 साल से ऊपर सेवा देने वाले ये कर्मचारी अब भूख और अपमान के बीच झूल रहे हैं। कोविड के दौर में जब लोग दरवाज़े बंद कर रहे थे, तब इन्हीं कर्मचारियों ने अस्पताल के दरवाज़े खोले रखे थे। मास्क के पीछे भी उनका डर दिखता था, लेकिन सेवा की भावना उससे बड़ी थी। लेकिन अब वही कर्मचारी कह रहे हैं हमारी सेवा का क्या मोल है? चार महीने से वेतन नहीं मिला, अब हमारे घरों में भी ‘एमरजेंसी’ है। कर्मचारी कहते हैं कि उनकी उम्र सेवा में ही बीत गई, लेकिन न तो उन्हें स्थाई किया गया, न कोई भविष्य की गारंटी दी गई। बहुत से लोग अब रिटायरमेंट की उम्र तक पहुंच चुके हैं, पर वे अब भी ‘संविदा’ नामक एक अस्थायी धागे से बंधे हुए हैं। अस्पताल प्रशासन की मानें तो इन कर्मचारियों के पद ‘सृजित’ ही नहीं हुए, इसलिए बजट ही नहीं आया। मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डॉ. अरुण जोशी का कहना है कि मामला शासन स्तर पर लंबित है, और जैसे ही बजट रिलीज़ होगा, वेतन दे दिया जाएगा।
लेकिन सवाल ये है कि अगर सेवा 20 साल से हो रही है, तो पद अब तक क्यों नहीं सृजित हुए? क्या 20 साल तक किसी कर्मचारी को ‘अस्थायी’ कहा जाना ही नीति है? इधर कर्मचारियों ने अस्पताल प्रबंधन और सरकार को साफ चेतावनी दी है अगर तीन दिन के भीतर उनकी मांगें नहीं मानी गईं, तो वे अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले जाएंगे। इसका सीधा असर अस्पताल की व्यवस्था पर पड़ेगा, और इसका जिम्मेदार खुद प्रशासन होगा। और अब यहां सबसे बड़ा सवाल य़ह है कि क्या सरकार को तब ही सुनाई देता है, जब कर्मचारी सड़क पर उतरते हैं? क्योंकि अस्पताल में इलाज ज़रूरी है, लेकिन उससे पहले न्याय का इलाज ज़रूरी है। क्योंकि भूखा पेट दवा नहीं बांट सकता।