गत लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को अपेक्षा अनुरूप सीटें नहीं मिलने के बाद से ही यह अटकलें लगने लगी थीं कि केंद्रीय नेतृत्व उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री बदलने का विचार कर रहा है और इस हेतु उसने चुनाव परिणाम समीक्षा के नाम पर रायशुमारी करने का भी कार्य आरंभ कर दिया है ।
इसी क्रम में अभी हाल ही में भाजपा की प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक भी लखनऊ में बुलायी गयी थी जिसमें राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भी भाग लिया। उत्तरप्रदेश में भाजपा की हाल की असफलता के पीछे दो भिन्न मत पार्टी में चल रहे हैं। पहला मत जो योगी समर्थकों का है उसमें केंद्रीय नेतृत्व का यूपी के संदर्भ में अति आत्मविश्वास में होना, निवर्तमान सांसदों को योगी के सुझावों की अनदेखी करके पुनः टिकट देना, अग्निवीर योजना तथा कथित रूप से संविधान बदलने के मुद्दे पर विपक्ष द्वारा विपरीत प्रचार करना तथा अमित शाह द्वारा यूपी चुनाव प्रचार की संपूर्ण बागडोर योगी की उपेक्षा करके अपने हाथ में ले लेना आदि हैं। निःसंदेह इन तर्कों में बल है तथा प्रत्यक्षतः ऐसा होता हुआ भी स्पष्ट दिखाई दे रहा था। दूसरा मत जो केंद्रीय नेतृत्व तथा प्रदेश में योगी विरोधी कहे जाने वाले पार्टी जनों का है उसमें प्रमुख रूप से यह बात रेखांकित की जाती रही है कि योगी का अपने मंत्रीमंडलीय साथियों तथा विधायकों से कोई संवाद नहीं रह गया था और योगी समस्त प्रशासन अधिकारियों के बलबूते पर चला रहे थे। उनका यह भी मानना है कि इन्हीं अधिकारियों ने चुनाव में भाजपा का कोई सहयोग नहीं किया जिसके कारण अनेक जगह पार्टी को पराजय का सामना करना पड़ा है। एक और कारण योगी प्रशासन द्वारा बुलडोजर चलवाकर लोगों के वर्षों पुराने मकानों को गिराने तथा प्रदेश में पुलिस राज स्थापित करना बताया जा रहा है। कुछ वर्षों से राजनैतिक तथा मीडिया सर्किल में अमित शाह और आदित्यनाथ के मध्य मनमुटाव की बातें भी छन छन कर आती रही हैं जिसके कारण भी प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की खबरों को बल मिला है। योगी के दोनों उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य तथा ब्रजेश पाठक इस कथित अभियान के मुखिया बतलाये जा रहे हैं। अभी हाल ही में मुख्यमंत्री द्वारा दो बार बुलायी गयी समीक्षा बैठकों में उन दोनों की अनुपस्थिति को भी इसी से जोड़ कर रखा जा रहा है। उपमुख्यमंत्री मौर्य का बार बार नई दिल्ली जाना और अमित शाह तथा जेपी नड्डा से मिलना भी कयासों को जन्म दे रहा है। कार्यकारिणी की बैठक में दोनों गुटों के अलग-अलग दिये गये वक्तव्यों ने इस धारणा को स्पष्ट कर दिया है। जहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भाजपा की हार के कारण को अति आत्मविश्वास में होना बताया जो सीधा दिल्ली की तरफ इशारा करता है वहीं उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने संगठन को सरकार से ऊपर बताते हुये अप्रत्यक्ष तौर पर योगी को संदेश देकर कार्यकताओं की भावना को अपने साथ करने की कोशिश की है। इसी मध्य संजय निषाद सहित कुछ अन्य नेताओं के वक्तव्य आ जाते हैं जिनमें हार के लिए योगी प्रशासन को तथा सरकारी नीतियों को जिम्मेदार बतलाया गया है। अब गंभीर मुद्दा यह है कि क्या केंद्रीय नेतृत्व वास्तव में योगी को हटाना चाह रहा है या फिर यह मात्र चेतावनी प्रयास है योगी को काबू करने का। और यदि वास्तव में वह योगी को हटाना चाह रहा है तो क्या उसने इसके राजनैतिक नफा नुक्सान का भी भली भांति पता है कि आम जनता योगी के अनुशासन और दंडा राज को पसंद करती है। विशेषकर महिलाएं इस बात को नहीं भूलती हैं कि योगी की सख्ती से उनका सड़क पर चलना फिरना अब उतना दुष्कर नहीं रह गया है। 2022 के विधानसभा चुनावों में विपक्ष की हवा के बावजूद योगी और मोदी की संयुक्त लोकप्रियता ने भाजपा की लाज बचाई थी। यदि मुस्लिमों तथा दलितों के एक वर्ग को छोड़ दिया जाए तो योगी की यह लोकप्रियता अभी भी बरकरार है। इसी लोकप्रियता के कारण भाजपा वाराणसी और अवध के आसपास के ज्यादातर क्षेत्रों में हार गयी वहीं योगी के गृहनगर गोरखपुर के आसपास की अधिकांश सीटों पर विजयी हुई। ये दोनों उपमुख्यमंत्री तथा सहयोगी दलों के नेता भी अपने क्षेत्रों में कुछ विशेष नहीं कर पाए। दूसरी बात ज्यादा महत्वपूर्ण है। योगी कोई येदुरप्पा, वसुंधरा, शिवराज, खट्टर या उत्तराखंड, गुजरात के मुख्यमंत्री जैसे क्षत्रप नहीं हैं जिन्हें एक झटके में पद विहीन कर दिया जाये। योगी की भारत भर में एक साख है और एक मांग भी है। चुनावों में लगभग प्रत्येक प्रदेश से एक स्टार प्रचारक के तौर पर उनकी मांग होती है और उनके उग्र हिंदुत्व वाले भाषणों तथा कार्यों की एक विशिष्ट यूएसपी है। यदि इसी क्रम में एक तीसरा बिंदु भी जोड़ दें तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वाला बिंदु भी अपना महत्व रखता है। यह कोई दबी छुपी बात नहीं है कि 2017 में जब हाईकमान मनोज सिन्हा को मुख्यमंत्री बनाना चाहता था तब संघ ने हस्तक्षेप करके योगी के पक्ष में वीटो किया था। योगी ने कार्य भी संघ की विचारधारा के अनुरूप ही किया बावजूद इसके कि वे कभी संघ के कार्यकर्ता नहीं रहे और पृथक रूप से हिंदू युवा वाहिनी तथा हिंदू महासभा के माध्यम से राजनीति करते रहे थे। अब संघ इस मुकाम पर जब भाजपा अध्यक्ष नड्डा ने खुलेआम कह दिया है कि भाजपा अब संघ पर निर्भर नहीं है, कितनी अपनी दखलअंदाजी योगी को बनाए रखने या हटाने के मामले में करेगा यह भविष्य के गर्भ में है।गोरखपुर कार्यकर्ता शिविर में सरसंघचालक मोहन भागवत के जाने तथा वहां योगी से नहीं मिलने के भी निहितार्थ निकाले जा सकते हैं।अभी जेपी नड्डा का राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल समाप्त हो चुका है और शीघ्र ही नये अध्यक्ष की नियुक्ति की जाने वाली है। कुछ हलकों में यह भी चर्चा है कि अभी योगी को 2027 तक बनाए रखा जाए और केशव प्रसाद मौर्य को राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया जाए। मौर्य संघ के कार्यकर्ता होने के साथ साथ विश्व हिन्दू परिषद में अशोक सिंघल के सहयोगी रह चुके हैं और हिंदुत्ववादी तथा संघ समर्थक लोगों का उन्हें भी भरपूर समर्थन मिलेगा। यह निश्चित है कि जो भी निर्णय किया जायेगा वो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्तर पर किया जायेगा और यह हकीकत है कि आज भी भारतीय जनता पार्टी में उनके निर्णयों को चुनौती देने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं है। ना योगी में और ना संघ में। एक सरसराहट 2017 से ही देश के राजनैतिक रूप से जागरूक नागरिकों में होती रही है कि नरेंद्र मोदी के बाद भाजपा में नंबर दो कौन है। यहां फिर अमित शाह बनाम योगी आदित्यनाथ की चर्चाएं होना प्रारंभ हो जाती हैं और यही वह बिंदु भी है जहां से यूपी की राजनैतिक परिस्थितियों का आकलन राजनैतिक विचारक करते रहे हैं और उम्मीद है कि दस सीटों पर विधानसभा उपचुनावों के बाद और तेजी से करने लगेंगे।