

उत्तराखंड में आपदा, आक्रोश और अंततः राजनीतिक असहायता का दौर, पेपर लीक और प्रदर्शन
राजेश सरकार
देहरादून: उत्तराखंड में मंत्रिमंडल विस्तार की गूंज थी। विधायकों की टाई सही हो चुकी थी, भाषण रटे जा चुके थे, सोशल मीडिया पोस्ट ड्राफ्ट में सेव हो चुकी थी और वफादारी का वजन तोल लिया गया था। लेकिन फिर अचानक कुछ ऐसा हुआ कि सपनों के पुलों पर प्रकृति ने बादल फोड़ दिए और राजनीति एक बार फिर किसी राहत शिविर की तरह सिमट गई।
प्रदेश में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की अगुवाई वाली सरकार में पाँच मंत्री पद खाली चल रहे हैं। इनमें चार पद पहले से ही रिक्त थे और एक पद पूर्व संसदीय कार्य मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल के इस्तीफे के बाद खाली हुआ। सत्ता के गलियारों में फुसफुसाहट थी कि अब की बार ‘मेरा नम्बर पक्का’। मगर कुर्सी की रेस में दौड़ रहे घोड़ों को शायद अंदाज़ा नहीं था कि रास्ते में मलबा आने वाला है और वो भी प्राकृतिक आपदा के रूप में।
सबसे पहले 5 अगस्त को उत्तरकाशी के धराली क्षेत्र में बादल फटा। तबाही ऐसी कि ज़िंदगी और ज़मीन दोनों खिसक गए। राहत और बचाव कार्य युद्ध स्तर पर चलाए जा रहे थे, मगर प्रकृति ने मौसम विभाग को भी मात दे दी। 24 अगस्त को चमोली के थराली में बादल फटा। पहाड़ फिर से कराह उठा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तुरंत संज्ञान लिया, उत्तराखंड आए और 1200 करोड़ रुपये की सहायता की घोषणा कर दी। सोचा गया, अब राहत आएगी, पर 17 सितंबर को देहरादून के सहस्त्रधारा में फिर बादल फटा। ऐसा लगा जैसे आकाश भी अब मंत्री पद के बंटवारे से नाराज़ हो गया हो।
प्राकृतिक आपदा के बाद आई राजनीतिक आपदा। UKSSSC का पेपर लीक हो गया। सरकारी नौकरी के सपने देख रहे युवाओं की आंखों में आग उतर आई। सोशल मीडिया से लेकर सड़कों तक आवाज़ उठी ‘न्याय चाहिए’। विपक्ष ने मौका नहीं गंवाया, समर्थन दिया और धरना तेज़ हो गया। इतना दबाव बना कि खुद मुख्यमंत्री को देहरादून स्थित छात्राओं के धरना स्थल पर जाना पड़ा। माँगें मानी गईं, धरना खत्म हुआ, अब सवाल ये है कि जब पूरा प्रदेश मलबे में दबा हो, सड़कें टूटी हों, लोग राहत शिविरों में हों, और अफसर सरकार से दो कदम आगे चल रहे हों तो क्या ये सही समय है सत्ता विस्तार का? मुख्यमंत्री धामी और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट ने कुछ सप्ताह पहले ही कहा था कि मंत्रिमंडल विस्तार बहुत जल्द होगा। पर वो जल्द कब आएगा? अब वो ‘जल्द’ शायद कैलेंडर के अगले साल के पन्ने में छुप गया है।
जो विधायक वर्षों से पार्टी की सेवा में लगे थे, जो हर बैठक में सबसे पहले और हर फोटो में सबसे आगे दिखते थे, उनके चेहरे लटक गए हैं। सोशल मीडिया पर हार्दिक बधाई टेम्पलेट अब ड्राफ्ट से डिलीट हो रही है।
मुख्यमंत्री और उनके कुछ गिने-चुने मंत्री आपदा में सक्रिय दिखे, जबकि बाकी माननीय शायद अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में कैमरा ढूंढते रह गए। अफसरों ने जब राहत कार्यों में जनप्रतिनिधियों को आईना दिखाया, तो समझ आ गया कि प्रशासन अब राजनीति से तेज़ दौड़ रहा है।
कुल मिलाकर उत्तराखंड की जनता को इस समय नेता नहीं, नेतृत्व चाहिए। और सत्ता के गलियारों में घूम रही कुर्सियों की खनक से ज़्यादा ज़रूरी है उन भूखों की थाली जो अब भी राहत शिविरों में खाना ढूंढ रही है। मंत्री पद की ख्वाहिशों पर फिलहाल प्राकृतिक आपदाओं की मिट्टी जम चुकी है। शायद अगली बारिश में फिर से सपने उगें या फिर सत्ता का सूरज किसी और दिशा से उगे।