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भीमताल में आज भी अधूरी है एक सार्वजनिक पुस्तकालय की कहानी

भीमताल। यह वही भीमताल है, जिसे लोग तस्वीरों में देखकर कहते हैं कितना सुंदर है। झील है, पहाड़ हैं, सैलानी हैं। लेकिन अगर आप पूछ लें यहाँ पढ़ने के लिए क्या है? तो जवाब अक्सर खामोशी होता है।
उत्तराखंड के नैनीताल जिले का यह कस्बा आज भी एक बुनियादी सवाल से जूझ रहा है यहाँ एक सार्वजनिक पुस्तकालय क्यों नहीं है? यह मांग नई नहीं है। यह मांग कल की नहीं है। यह मांग उन लोगों की है, जिनके बाल सफेद हो चुके हैं, जो आज भी अख़बार पढ़ते हैं, किताबों को संभालकर रखते हैं और मानते हैं कि समाज सिर्फ होटल और रिसॉर्ट से नहीं बनता।
भीमताल नगर पंचायत बने करीब पाँच दशक हो चुके हैं। कभी नगर पंचायत कार्यालय में एक छोटा-सा पुस्तकालय था। तत्कालीन चेयरमैन बी.डी. जोशी के कार्यकाल में इसकी शुरुआत हुई। तब के सांसद पं. नारायण दत्त तिवारी ने सांसद निधि से डेढ़ लाख रुपये भी दिए थे। लेकिन फिर नया भवन बना। दीवारें उठीं। फाइलें बढ़ीं। और पुस्तकालय कहीं पीछे छूट गया। नई इमारत में किताबों के लिए जगह नहीं बनी। और धीरे-धीरे वह पुस्तकालय इतिहास बन गया वो भी बिना किसी शिलालेख के। विडंबना देखिए भीमताल आज शिक्षा का केंद्र बनता जा रहा है। स्कूल हैं, कॉलेज हैं, कोचिंग संस्थान हैं। लेकिन एक सार्वजनिक पुस्तकालय नहीं। यहाँ के बुजुर्ग, रिटायर कर्मचारी, पूर्व सैनिक, शिक्षक और साहित्य प्रेमी सब एक ही सवाल पूछते हैं कि हम पढ़ने कहाँ जाएँ? इंटरनेट सब कुछ नहीं होता। मोबाइल स्क्रीन पर हर ज्ञान नहीं मिलता। कभी-कभी किताब चाहिए शांत, सधी हुई, भरोसेमंद। स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता पूरन बृजवासी ने हाल ही में उत्तराखंड के मुख्य सचिव को पत्र लिखा है। पत्र में कोई मांगों की सूची नहीं है। सिर्फ एक सीधी बात है भीमताल में एक सार्वजनिक पुस्तकालय खोल दिया जाए।
यह पत्र दरअसल उस आवाज़ का प्रतिनिधित्व करता है, जो वर्षों से फाइलों के नीचे दबी हुई है। क्या भीमताल सिर्फ घूमने की जगह है? क्या यहाँ के नागरिकों को पढ़ने का हक़ नहीं? क्या विकास का मतलब सिर्फ सड़क, होटल और पार्किंग है? या फिर कभी कोई यह भी सोचेगा कि एक समाज को ज़िंदा रखने के लिए किताबें भी चाहिए होती हैं। भीमताल आज भी इंतज़ार में है। किताबें जैसे किसी अलमारी में नहीं, किसी फैसले में बंद हैं।

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