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हल्द्वानी: समाज में बच्चों को इंसान बनाने का दौर अब गुजरे ज़माने की बातें हो चली हैं। आजकल अभिभावक बच्चों को यांत्रिक बनाने में लगे हुए हैं। परस्पर स्पर्धा, दिखावे और अपने सपनों को बच्चों पर थोपने में अभिभावक जहां यथार्थ से कटे हुए हैं, वहीं शिक्षा माफिया भी इस व्यवस्था को अपनी पूंजी के दम पर खरीद चुका है। यहाँ न चेतना की जगह है, न संवेदनाओं की और न ही सृजन की।
अब वो मौसम आ गया है जब पंछियों के पर कतर कर उन्हें एक दड़बे से दूसरे दड़बे में भेज दिया जाएगा। ये पंछी वे विद्यार्थी हैं जो दसवीं कक्षा पास करने के बाद संस्थागत पढ़ाई न करके कोचिंग इंस्टिट्यूट में भेजे जाएंगे। ये कोचिंग इंस्टिट्यूट एक प्रकार के छद्म स्कूलों की तरह काम करते हैं, जिनमें विद्यार्थियों को हाजिरी दर्ज कराने के नाम पर स्कूल में दिखाया जाता है जबकि असल में वे कोचिंग इंस्टिट्यूट में रहते हैं। यह खेल न केवल तहसील या जिले स्तर पर बल्कि पूरे राज्य में चल रहा है, और इन कोचिंग इंस्टिट्यूट्स के कई गिरोह राज्य सरकार से खुला संरक्षण प्राप्त करते हैं।
इस खेल को चलाने के लिए सबसे पहले शहरभर के होर्डिंग्स और अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन दिए जाते हैं, जिनमें कोचिंग इंस्टिट्यूट के विद्यार्थियों की महिमा का बखान होता है। अभिभावकों को यह भरोसा दिलाया जाता है कि इन संस्थानों से पढ़े बच्चे नामी डॉक्टर, इंजीनियर और सफल प्रशासक बनते हैं। इस तरह का विज्ञापन अभिभावकों को आकर्षित करता है, और फिर उन्हें यह समझाया जाता है कि वे बच्चों को एक ‘ब्रांडेड’ कोचिंग इंस्टिट्यूट में भेजने जा रहे हैं।
इसमें सबसे अहम पहलू यह है कि स्कूल और कोचिंग इंस्टिट्यूट की पढ़ाई को कैसे एक साथ मैनेज किया जाएगा। इसके लिए एक आसान सा तरीका बताया जाता है – बच्चा पढ़ाई कोचिंग इंस्टिट्यूट में करेगा, लेकिन उसका स्कूल के नाम पर प्रवेश एक छद्म स्कूल में कराया जाएगा, जहां उसे केवल 10-15 दिन में एक बार जाना होगा। इस प्रक्रिया को ‘डमी क्लासेज’ कहा जाता है, जो जिला प्रशासन और शासन की कार्यप्रणाली पर बड़ा सवाल खड़ा करता है।
हमनें जब जानने की कोशिश की कि कोचिंग इंस्टिट्यूट स्थापित करने के लिए क्या नियम-मानक हैं, तो यह हैरान करने वाली बात सामने आई कि इन्हें कोई लाइसेंस लेने की जरूरत नहीं होती। जबकि स्कूलों के लिए ये प्रक्रियाएं अनिवार्य हैं। यह नागरिक सुरक्षा के लिहाज से बड़ा सवाल है, जिसकी जिम्मेदारी जिलाधिकारियों की बनती है।
डमी स्कूलों में जहां विद्यार्थियों की उपस्थिति मात्र 30-40 दिन होती है, वहीं सीबीएसई के मानक के मुताबिक परीक्षा देने के लिए किसी विद्यार्थी की उपस्थिति 75 प्रतिशत होनी चाहिए। इससे शिक्षा विभाग की गहरी नींद का पता चलता है, जबकि सीसीटीवी कैमरों की मदद से यदि नियम लागू किए जाएं तो इन कोचिंग इंस्टिट्यूट्स का वजूद खत्म हो जाएगा। यह शिक्षा से ज्यादा नागरिक सुरक्षा का मामला बन गया है, और जिलाधिकारियों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। आखिरकार, यह हमारे बच्चों के भविष्य से जुड़ा हुआ है।
क्या है डमी स्कूल?
डमी स्कूल ऐसे स्कूल होते हैं जहां छात्रों को दाखिला तो होता है, लेकिन उन्हें नियमित कक्षाओं में भाग लेने की आवश्यकता नहीं होती। इन्हें नॉन-अटेंडिंग स्कूल भी कहा जाता है। डमी स्कूल में दाखिला लेने वाले छात्रों का मुख्य उद्देश्य जेईई मेन, जेईई एडवांस, नीट जैसी प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करना होता है। ये छात्र कक्षाओं में उपस्थित नहीं होते और सीधे बोर्ड परीक्षा में शामिल हो जाते हैं।
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