

अब मदरसे नहीं, समान शिक्षा की ओर बढ़ता उत्तराखंड, एक बोर्ड, एक पाठ्यक्रम, एक भविष्य!
देहरादून: उत्तराखंड में अब मदरसा बोर्ड इतिहास बनने जा रहा है। जी हां, इतिहास। उत्तराखंड विधानसभा ने उत्तराखंड अल्पसंख्यक शिक्षा विधेयक 2025 को पारित कर दिया था, और अब राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल (से.नि.) गुरमीत सिंह ने इस पर मुहर लगा दी है। इसका सीधा मतलब है मदरसा बोर्ड समाप्त। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी कहते हैं हम चाहते हैं कि राज्य में शिक्षा समान हो, आधुनिक हो, 2026 से सभी अल्पसंख्यक बच्चों को राष्ट्रीय पाठ्यक्रम (एनसीएफ) और नई शिक्षा नीति (एनईपी-2020) के तहत पढ़ाया जाएगा। बयान अच्छा है, नीयत भी ठीक हो सकती है, लेकिन सवाल यही है क्या समानता सिर्फ पाठ्यक्रम से आती है? या फिर समान अवसर, समान संसाधन और समान सोच की भी जरूरत होती है?
अब मदरसे, ईसाई मिशनरी स्कूल, सिख गुरुकुल, जैन शिक्षण संस्थान सबके लिए एक ही छतरी होगी,
उत्तराखंड अल्पसंख्यक शिक्षा प्राधिकरण। और बोर्ड?
उत्तराखंड विद्यालयी शिक्षा परिषद (यूबीएसई) से संबद्धता जरूरी होगी। मतलब ये कि अब कोई भी अल्पसंख्यक संस्थान अगर स्कूल चलाना चाहता है तो उसे वही मान्यता लेनी होगी जो किसी सरकारी या निजी स्कूल को लेनी पड़ती है। मुख्यमंत्री का दावा है कि अब हर बच्चा, चाहे किसी भी मज़हब या जाति का हो, एक जैसी शिक्षा पाएगा। पाठ्यक्रम एनसीएफ के तहत होगा, यानि यूपीएससी से लेकर नौकरी तक, सभी को एक जैसा आधार मिलेगा। इससे धार्मिक शिक्षा में कट्टरता नहीं आएगी, और रोज़गार में अवसर बढ़ेंगे।
राज्यपाल ने कानून पर हस्ताक्षर करने से पहले मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन और बौद्ध समुदायों से बात की। चर्चा जरूर हुई, पर क्या संवाद भी हुआ? यह इतिहास खुद तय करेगा। एक और सवाल क्या यह देश का पहला राज्य है जहां ऐसा हो रहा है? जी हां, उत्तराखंड देश का पहला राज्य बन गया है जिसने मदरसा बोर्ड को पूरी तरह खत्म करके अल्पसंख्यक शिक्षा को मुख्यधारा में लाने का फैसला किया है। अब बात उन बच्चों की जो अब कुरान और हदीस की तालीम के साथ साइंस और मैथ्स भी पढ़ेंगे। उन बच्चों की, जिनके पास अब संस्कृत और कंप्यूटर, दोनों की क्लास होगी। और उन उलेमाओं की, जिन्हें अब शैक्षिक डिग्री के लिए शिक्षा परिषद की कसौटी पर खरा उतरना होगा।
जब भी कोई सरकार समानता की बात करती है, तब ज़रा ठहर कर देखना चाहिए कि वह समानता ऊपर से थोपी जा रही है या ज़मीन पर बोई जा रही है। क्योंकि एक जैसी शिक्षा से पहले ज़रूरी है एक जैसी ज़मीन। और ये ज़मीन तभी तैयार होगी जब संवाद हो, संवेदना हो और सबसे अहम समावेश हो।