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सड़कों पर मलबा है, रास्ते ठहरे हैं, लोग इंतज़ार में हैं उत्तराखंड फिर रो रहा है

देहरादून: उत्तराखंड फिर सहमा हुआ है। बारिश की हर बूँद लोगों के दिल में दहशत बनकर टपक रही है। चमोली और रुद्रप्रयाग में आसमान से जो बरसना था, वह अब ज़मीन खिसकाने लगा है। भूस्खलन यानी लैंडस्लाइड अब यहाँ की ज़िंदगी का हिस्सा बन गया है दुःख की तरह स्थायी।
रुद्रप्रयाग और श्रीनगर के बीच सिरोबगड़ एक ऐसा नाम बन चुका है, जिसे सुनते ही यात्रियों की रफ़्तार रुक जाती है, और सरकार की ज़िम्मेदारियाँ भी। यह वही सिरोबगड़ है जहाँ से फिर एक बार लैंडस्लाइड की डरावनी तस्वीरें आई हैं। ऋषिकेश-बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग मलबे से भर गया है। सड़क नहीं रही, सिर्फ़ पत्थरों की गवाही है कि यहां कभी रास्ता हुआ करता था।
रुद्रप्रयाग पुलिस ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर जानकारी दी इस बार एक अनूठे अंदाज़ में। उन्होंने लिखा, “सिरोबगड़ मां बाटु बन्द चा।” यानी अब सूचना भी स्थानीय भाषा में है, लेकिन क्या समाधान भी स्थानीय हो पाए हैं?
बदरीनाथ जाने वाला रास्ता चमोली जिले में नंदप्रयाग के पास भूस्खलन से बंद पड़ा था। वहाँ वो यात्री फंसे हैं, जो न तो आगे जा सकते हैं, न पीछे लौट सकते हैं। पहाड़ों का मलबा उनके इंतज़ार को और भारी बना देता है। जोशीमठ से आने वालों को अब ऊखीमठ की ओर मोड़ने की सलाह दी गई है। यानी एक तीर्थ यात्रा अब संघर्ष बन चुकी है सड़क से ज़्यादा धैर्य की।
कमेडा के पास भी भूस्खलन हुआ था। पुलिस की तत्परता से मलबा हटाया गया और रास्ता खोला गया।
पर सवाल ये है कि कब तक ये सिलसिला यूं ही चलता रहेगा? हर बरसात में सड़कें बंद हो जाएं, और प्रशासन सोशल मीडिया पर ‘सड़क खुली’ और ‘सड़क बंद’ की अपडेट देता रहे क्या यही अब उत्तराखंड की नियति है?
आस्था कभी थमती नहीं, लेकिन अब श्रद्धालु भी ठहराव के आदी हो चले हैं। केदारनाथ और बदरीनाथ की यात्रा सिर्फ़ भक्ति का नहीं, इंतज़ार का सबक बन गई है।
सरकारें बदलती हैं, घोषणाएं बदलती हैं, लेकिन सिरोबगड़ की सड़क का हाल नहीं बदलता।
क्यों हर साल सिरोबगड़ जैसी जगहें ‘ब्लैक स्पॉट’ बनकर रह जाती हैं? क्या पहाड़ों में सड़कों की इंजीनियरिंग में कोई दीर्घकालिक सोच है? क्या तीर्थयात्रा की बात करने वाली सरकारें तीर्थस्थलों तक सुरक्षित रास्ता दे पा रही हैं?
क्या एनएचएआई सिर्फ मलबा हटाने के लिए रह गया है, या कभी ऐसी सड़कें बनेगीं जिनसे मलबा ही न गिरे?
उत्तराखंड के पहाड़ फिर टूटी हुई चुप्पियों में तब्दील हो गए हैं। जहां लोग बोलते नहीं, इंतज़ार करते हैं कि शायद अबकी बार कुछ बदलेगा।

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