

हल्द्वानी की सड़कों पर शहीदों को याद कर निकली प्रभात फेरी
हल्द्वानी: शनिवार की सुबह आम दिनों से थोड़ी अलग थी। जब शहर की नींद खुली भी नहीं थी, तब कुछ कदम इतिहास को फिर से ज़िंदा करने की कोशिश में मुखानी चौराहे से दमवादूंगा पंचक्की चौराहे की ओर बढ़ चुके थे। सुबह 5:00 बजे, प्रभात की पहली किरण से पहले निकली इस प्रभात फेरी ने न सिर्फ हवा में पुराने इंकलाबी गीतों की गूंज छोड़ी, बल्कि एक बार फिर सवाल खड़े कर दिए कि क्या आज भी वह भारत बन पाया है, जिसका सपना बिस्मिल और अशफाक ने देखा था?
बता दें कि 9 अगस्त 1925 की तारीख़ जो किताबों में दर्ज है, लेकिन ज़ेहन में नहीं। उस दिन कुछ नौजवानों ने एक ट्रेन को नहीं, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के अहंकार को लूटा था। अब ठीक सौ साल बाद, 2025 में चन्दन ने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि यह मौका सिर्फ याद करने का नहीं, बल्कि समझने और दोहराने का है कि वे लड़ाई सिर्फ आज़ादी की नहीं थी, बराबरी की भी थी। समाज को जाति, धर्म, धन और वंश की दीवारों से आज़ाद करने का सपना था उन वीरों का।
सभा में टी.आर. पांडे ने आज़ादी के बाद के भारत पर सवाल उठाए। वह बोले क्या यह वही भारत है जिसके लिए शहीदों ने जान दी? क्या आज भी हर किसी को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, मकान मिल पाया है? उनकी आवाज़ में टीस थी और गुस्सा भी, जब उन्होंने कहा कि सरकार आज भी जाति-धर्म के नाम पर ‘फूट डालो और राज करो’ के पुराने औपनिवेशिक हथियार का इस्तेमाल कर रही है। बस चेहरे बदले हैं, चाल वही है।
इस दौरान क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन और परिवर्तनकामी छात्र संगठन के कार्यकर्ता मोहन मटियाली, शेखर, रियासत, टी.आर. पांडे, अशोक कुमार, महेश, उमेश पांडे, हेमा, चंदन सब शामिल थे। यह भीड़ नहीं थी, यह एक याद थी। यह जुलूस नहीं था, यह प्रतिरोध था।
सभा का समापन उस गीत से हुआ, जिसे सुनकर रगों में आज भी खून तेज़ दौड़ने लगता है ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’
सभा का संचालन मोहन मटियाली ने किया सधे हुए शब्द, ठहरा हुआ लहजा। कुल मिलाकर इतिहास को सिर्फ याद करने से कुछ नहीं होगा, उसे दोहराना पड़ेगा, उसके सवालों से जूझना पड़ेगा। और जब भी कोई प्रभात फेरी निकले, समझिए कि अंधेरे को चुनौती दी जा रही है।