

एक गांव की चीखती खामोशी
पिथौरागढ़ की शाम उस दिन कुछ ज़्यादा ही खामोश हो गई थी। सूरज ढल रहा था, लेकिन सुनी पुल के नीचे बहती नदी की धाराएं मानो किसी त्रासदी को अपने भीतर समेट रही थीं। एक जीप, जिसमें बोकटा गांव के 14 लोग सवार थे कुछ स्कूल से लौटते बच्चे, कुछ कामकाज से थके हुए बुज़ुर्ग, और कुछ सपनों से भरे नौजवान अचानक नदी में समा गई।
जीप कोई साधारण वाहन नहीं था। वह गांव और शहर के बीच की एक डोर थी। बच्चों की स्कूल तक की उम्मीद थी, बीमार माँ के इलाज की एक राह थी, और त्योहारों पर शहर से लौटती खुशियों की एक सवारी भी।
लेकिन मंगलवार शाम 5 बजे, वो डोर टूट गई। और टूट कर खामोशी में तब्दील हो गई।
सिमरन, केवल 8 साल की थी। तनुजा और विनीता 14 और 15 की उम्र में ज़िंदगी को बस समझना शुरू ही किया था। वे अब नहीं हैं।
उनके बैग अब भी जीप के मलबे के पास कीचड़ में पड़े हैं। उनमें किताबें हैं, कुछ अधूरी कॉपियाँ, शायद कोई लंचबॉक्स भी होगा जिसमें मां ने पराठा रखा होगा।
नरेंद्र सिंह, जीप चला रहा था। वह इस रास्ते को शायद आंख बंद कर के भी पहचान सकता था। लेकिन पहाड़ की सड़कों पर एक सेकंड की चूक, किस्मत को पूरी तरह बदल देती है। नरेंद्र नहीं रहा। और उसके साथ गांव का एक हिस्सा भी हमेशा के लिए चला गया।
छह लोग घायल हैं। पूजा मुनौला, जिनके पति कुंदन की बेटी सिमरन भी नहीं रही, अब अस्पताल में हैं।
दीवान सिंह, सुमित, योगेश सबके जिस्म पर जख्म हैं। लेकिन मन पर जो ज़ख्म है, उसका कोई एक्स-रे नहीं बनता।
बोकटा गांव अब सिर्फ एक जगह नहीं, एक पीड़ा बन गया है।
जहां हर घर से चीखों की आवाज़ आती है। जहां बच्चों की हँसी नहीं, अब सिर्फ मातम की खामोशी है।
प्रशासन ने आश्वासन दिया है। सहायता की बात कही है। पर गांव जानता है यह शून्यता कोई मुआवजा भर नहीं सकता।
आख़िर में सवाल वही कि कितनी और जानें लेंगी ये लचर सड़कें?
कब तक पहाड़ के लोग, विकास की बातों में सिर्फ ‘डाटा पॉइंट’ बनकर रहेंगे? जब पहाड़ रोता है, तो उसकी आवाज़ मैदानी न्यूज़ चैनलों तक अक्सर नहीं पहुंचती।
पर सच ये है इस नदी में सिर्फ एक जीप नहीं गिरी, उसमें एक पूरा गांव डूब गया।