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राजेश सरकार
हल्द्वानी। वो ज़माना कुछ और था साहब और अब जो य़ह समय चल रहा है, इसमे कथनी और करनी के बीच का फासला बड़ा है। 80 वें वर्ष में प्रवेश कर चुके वरिष्ठ पत्रकार भुवन जोशी कहते है कि हमारे ज़माने में बहुत सस्ते में चुनाव लड़ा जाता था। तब न गाड़ियां थी और न ही मोबाइल का सिस्टम। होर्डिंग, बैनर, पोस्टर भी नहीं होते थे। छापे से दीवार पर छपाई करके पार्टी और प्रत्याशी का नाम, चुनाव चिन्ह छापा जाता था। पर्चे घर-घर देकर चुनाव प्रचार किया जाता था। कार्यकर्ता रात-दिन वोटर लिस्ट लेकर मतदाता पर्चियां बनाते थे और मतदाताओं के घरों में पर्चियां देकर उनसे अपने प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करने की अपील करते थे। कार्यकर्ता रोजाना रिक्शे में बैठकर लाउडस्पीकर के माध्यम से 20 से 25 किलोमीटर तक प्रचार करते थे। रात को घर लौटते पर वह बुरी तरह थक चुके होते थे, अब अगले दिन किस क्षेत्र में प्रचार करना है, इस पर मंत्रणा करने के बाद सो जाते थे। प्रत्याशी को अपने समर्थकों के लिए चाय – नाश्ते से लेकर भोजन की व्यवस्था करनी होती थी। इतना ही नहीं पान, बीड़ी, सिगरेट का भी इंतजाम करना पड़ता था। पार्टी प्रत्याशी को चुनाव लड़ाती थी। पार्टी की ओर से पर्चे छपवाकर दिए जाते थे। चुनाव कार्यालय का खर्च भी पार्टी वहन करती थी। आज सारा खर्च उम्मीदवार को स्वम करना पड़ता है। चुनाव कार्यालय में पार्टी ही लैंडलाईन टेलीफोन लगवाती थी। उस पर पार्टी मुख्यालय से दिशा निर्देश प्राप्त होते थे। पार्टी द्वारा एक बड़ी जनसभा आयोजित की जाती थी। उसमे आने वालीं भीड़ से अंदाजा हो जाता था कि चुनाव किसके पक्ष में जा रहा है। उस समय की जनसभाएं चुनाव का रुख बदल देती थी। लोग अपने लोकप्रिय नेता को जनसभाओं में घण्टों सुनते थे।

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चुनाव प्रचार में कोई भी किसी को अपशब्द नहीं कहता था और न ही किसी का उपहास उड़ाया जाता था। कई बार प्रत्याशी चुनाव प्रचार के दौरान आमने सामने आ जाते थे, इस दौरान वह बहुत ही शिष्टाचार से एक दूसरे की कुशलक्षेम पूछते थे। समर्थक एक दूसरे के प्रत्याशी को लेकर हूटिंग नहीं करते थे। मतदान के दिन कार्यकर्ता बस्ते भी निस्वार्थ होकर लगाते थे।मतदाताओं को कार्यकर्ता ही घरों से लेकर वोट डलवाते थे। आज परिस्थितियां बदल गई है। जोशी जी बोले एक बात तो में तुमको बताना ही भूल गया, सो बताता हूं क्यु की आप भी इसी फिल्ड से है। पत्रकारों का जो सम्मान मैंने उस ज़माने में देखा वह अब देखने को नहीं मिलता है। उस समय कार्यकर्ता और प्रत्याशी पत्रकारों से पूछते नहीं थकते थे कि बताइये आपके समीकरण क्या कहते है, पत्रकार भी पूरी निष्पक्षता से इसका उत्तर देते थे। पत्रकारों की बात को पत्थर की लकीर माना जाता था। जोशी जी बोले अब ज्यादा मत पूछो हमारे साथी बुरा मान जायेगे। चल अब नहाने भी जाना है, बाद में फिर करेंगे इस पर चर्चा……

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