

वीडियो ने खोली सरकारी संवेदनहीनता की परतें
राजेश सरकार
देहरादून: हरिद्वार के महिला अस्पताल की दीवारें आज कुछ ज्यादा ही चुप हैं। वो दरवाज़े जिन्हें कभी ‘जननी सुरक्षा योजना’ का प्रवेश द्वार बताया गया था, वहीं अब एक मजदूर की पत्नी को धक्के खाते हुए फर्श पर प्रसव करना पड़ा। सोचिए, एक लोकतांत्रिक देश में जहां सरकारें स्वास्थ्य की योजनाओं के विज्ञापनों पर करोड़ों फूंक देती हैं, वहां एक गर्भवती महिला को भर्ती तक नहीं किया जाता।
रात का समय था। एक मजदूर की पत्नी प्रसव पीड़ा से तड़प रही थी। अस्पताल के बाहर दर्द की चीखें थीं और भीतर सन्नाटा। डॉक्टर मौजूद थे, लेकिन शायद उनकी डिग्रियों में इंसानियत की कोई पंक्ति नहीं पढ़ाई गई थी। नर्स थीं, लेकिन मानो ईमानदारी छुट्टी पर चली गई थी। स्टाफ था, लेकिन संवेदना का शायद ट्रांसफर हो गया था।
डॉक्टर ने कहा यहां डिलीवरी नहीं होगी। यह कथन नहीं, बल्कि सिस्टम का चूका हुआ ईसीजी है। एक ऐसी व्यवस्था का प्रमाण जो केवल कागजों पर धड़कती है और जमीनी हकीकत में मृत पड़ी है। गर्भवती महिला को न केवल बाहर निकाल दिया गया, बल्कि जब वह फर्श पर प्रसव के दौरान तड़प रही थी, तो डॉक्टरों ने कहा आशा वर्कर का मरीज है, वही साफ करे।
जब आशा वर्कर ने इस अन्याय को अपने मोबाईल फोन के कैमरे में कैद किया, तो अस्पताल प्रशासन ने मोबाइल छीनने की कोशिश की। क्योंकि सच्चाई का सामना करने से बेहतर है उसे छुपा देना है। लेकिन सोशल मीडिया पर वायरल होते इस वीडियो ने उस खामोशी को चीर दिया है, जो वर्षों से सरकारी अस्पतालों के गलियारों में गूंजती रही है।
सीएमओ आरके सिंह ने इसे आशा वर्कर की साजिश बता दिया। मतलब, अगर कोई व्यवस्था की पोल खोल दे तो वो साजिश हो जाती है। महिला आयोग ने स्वतः संज्ञान लिया है। जांच के आदेश दे दिए गए हैं। अब कुछ फाइलें खुलेंगी, कुछ बंद हो जाएंगी। शायद किसी का ट्रांसफर होगा, शायद कोई सस्पेंड। फिर कुछ दिनों बाद सब कुछ सामान्य यानी असंवेदनशील हो जाएगा।
लेकिन सवाल रह जाएगा कि अगर एक गरीब मजदूर की पत्नी को इंसान की तरह ट्रीट नहीं किया जा सकता, तो स्वास्थ्य व्यवस्था किसके लिए है? जिन योजनाओं का ढोल पीटा जाता है, वो बजती कब हैं?
सरकारी अस्पतालों में जब डॉक्टर संवेदना खो देते हैं, तो क्या वो सिर्फ़ क्लर्क बन जाते हैं? यह सिर्फ हरिद्वार की कहानी नहीं है। यह बागेश्वर की भी है, टिहरी की भी, और उत्तरकाशी की भी। यह उत्तराखंड की वो अनकही पीड़ा है, जो पहाड़ों से मैदानों तक चीखती है सिस्टम है, मगर सिस्टम से कोई उम्मीद मत रखना।

