

देहरादून: यह सिर्फ़ एक विभाग की खबर नहीं है, यह एक राज्य की नियति बनती जा रही है। उत्तराखंड वन विकास निगम एक समय था जब इस नाम में व्यवस्था की उम्मीद होती थी, अब यह नाम नियमों की धज्जियाँ उड़ाने वाले अफसरों का गढ़ बन गया है। पिछले तीन-चार वर्षों में जो कुछ हुआ, वह नियुक्ति नहीं, नीचता का खेल बन गया। संविधान को ताक पर रखा गया, शासन के आदेशों को हवा में उड़ाया गया और महामहिम राज्यपाल के आदेशों को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया।
10 फरवरी 2022 यह तारीख याद रखिएगा। इस दिन विभागीय चयन समिति की बैठक होती है। बैठक में निर्णय लिया जाता है कि सात लॉगिंग अधिकारियों को प्रोन्नत कर दिया जाए। नियम? आचार संहिता?
राज्यपाल के आदेश? संविधान? सब ‘चुनी हुई चुप्पी’ में धकेल दिए जाते हैं।
22 फरवरी और 8 मार्च को जब आदेश निकलते हैं, तब प्रदेश में आचार संहिता लागू होती है। चुनाव आयोग आँखें मूँदे खड़ा रहता है। शासन नींद में होता है और अफसरों का यह गिरोह ‘प्रोन्नति’ के नाम पर सरकारी व्यवस्था की लाश पर राजनीति करता है। शासन जागता है, लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है। आदेश रद्द किए जाते हैं, यह कहकर कि ये नियमविरुद्ध हैं और सभी परवर्ती प्रोन्नतियाँ स्वतः अमान्य हैं। फिर मामला कैबिनेट में गया। फिर महामहिम राज्यपाल के पास। राज्यपाल ने भी दो टूक शब्दों में कहा ये प्रोन्नतियाँ अमान्य हैं।
लेकिन लोकतंत्र में अब आदेश का मूल्य नहीं, अफसर की मर्जी चलती है। कभी शर्मा, कभी जोशी, फिर राव और फिर जीएस पांडेय प्रबंध निदेशक बदले, लेकिन अफसरशाही की जड़ें इतनी गहरी थीं कि कोई भी इन्हें हिला नहीं पाया। फरवरी 2024 में प्रबंध निदेशक ने फिर अपील की कि परवर्ती प्रोन्नतियाँ बहाल की जाएं, शासन ने फिर सिरे से खारिज कर दिया। अब तक सात में से पाँच अधिकारी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। लेकिन दो नाम आज भी सरकारी व्यवस्था को ठेंगा दिखा रहे हैं शेर सिंह और जगदीश राम। शेर सिंह को वापस लॉगिंग अधिकारी बनाया जाना था, लेकिन उन्हें क्षेत्रीय प्रबंधक कोटद्वार बना दिया गया। क्यों? किसके इशारे पर? कौन है वो ताकत जो राज्यपाल के आदेश को भी बेमानी बना देती है?
जब सचिव स्तर से पत्र गया जब राज्यपाल ने कहा प्रोन्नति अवैध है फिर किसके आदेश पर शेर सिंह अब भी कोटद्वार के क्षेत्रीय प्रबंधक बने हुए हैं? यह न सिर्फ़ राज्यपाल के पद की गरिमा का अपमान है, बल्कि यह भी दिखाता है कि उत्तराखंड में अब लोकतंत्र नहीं, ‘अधिकारियों का लोकतंत्र’ चल रहा है। अगर राज्यपाल के आदेश का यही हाल है, तो आम जनता की शिकायतों की हैसियत क्या बचती है? अगर अफसर ही संविधान बन जाएं, तो फिर अदालतें सिर्फ़ दिखावा बनकर क्यों रह जाएं?
और अब नए प्रबंध निदेशक के रूप में नीना गैरवाल ने चार्ज संभाल लिया है। उनसे शासन और जनता दोनों को उम्मीद है कि वह कम से कम यह साबित करेंगी कि उत्तराखंड में अब भी कानून का राज बचा है। जब हमने उनसे संपर्क किया तो उन्होंने बताया शासन से पत्राचार चल रहा है, प्रक्रिया गतिमान है। अब सवाल य़ह है कि कब तक ये ‘प्रक्रियाएं’ अफसरों की ढाल बनी रहेंगी? कब तक राज्यपाल का आदेश महज़ एक दस्तावेज़ बना रहेगा? कब तक लोकतंत्र अफसरशाही की जेब में रहेगा?उत्तराखंड पूछ रहा है क्या अफसरशाही ही अब इस राज्य का भविष्य है? कुल मिलाकर जब कानून की सबसे ऊँची कुर्सी को ठेंगा दिखाने की परंपरा बन जाए, तब समझ लीजिए कि लोकतंत्र नहीं, ‘लोक तमाशा’ शुरू हो चुका है।