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मनरेगा से गारंटी हटाने की कहानी और गांव के मजदूर की बढ़ती बेबसी

देहरादून/ हल्द्वानी: कभी गांव का मजदूर काम मांगता था और सरकार को काम देना पड़ता था। इसे कानून कहते थे। इसे अधिकार कहते थे। इसे मनरेगा कहते थे। अब कहा जा रहा है विकसित भारत गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण)। नाम लंबा है, मगर मजदूर का हक छोटा हो गया है। नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य कहते हैं यह सिर्फ नाम बदलने की कहानी नहीं है, यह उस अधिकार को खत्म करने की कहानी है, जिसे संसद ने कानून बनाकर गरीब को दिया था। मनरेगा में काम मांगना मजदूर का अधिकार था। नई योजना में काम मांगने का अधिकार ही नहीं है। काम मिलेगा या नहीं, यह अब बजट तय करेगा। फंड खत्म, तो अधिकार खत्म। पहले केंद्र सरकार 90 प्रतिशत खर्च उठाती थी, राज्य 10 प्रतिशत। अब केंद्र 60 प्रतिशत देगा, 40 प्रतिशत राज्य को देना होगा। यानी योजना केंद्र की, प्रचार केंद्र का, लेकिन खर्च राज्य करेंगे। और अगर तय बजट से ज्यादा मजदूर ने काम कर लिया, तो उसका भुगतान भी राज्य करे।
मनरेगा की आत्मा ग्राम सभा और पंचायत थीं। गांव तय करता था कि उसे क्या काम चाहिए तालाब, रास्ता, पानी, मिट्टी। अब काम तय होंगे दिल्ली के डैशबोर्ड पर। जीआईएस, बायोमेट्रिक्स, जियो-टैगिंग, पीएम गति शक्ति और डिजिटल नेटवर्क। सवाल यह है जिस मजदूर के पास आज भी स्मार्टफोन नहीं है, जो अंगूठा मशीन पर ठीक से नहीं रख पाता, वह इस विकसित भारत में कहां खड़ा होगा?
यशपाल आर्य कहते हैं नई स्कीम में खेती के सीजन में दो महीने काम की कोई गारंटी नहीं है। यानी जब खेतों में काम नहीं होगा, तब सरकार भी हाथ खड़े कर देगी। मजदूर अपने भाग्य के भरोसे होगा या तो कम अनाज पर काम करे, या शोषण सहे। सरकार को फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि अब यह अधिकार नहीं, योजना है। नाम बदलने में करोड़ों रुपये खर्च होंगे। पोस्टर बदलेंगे, बोर्ड बदलेंगे, प्रचार बदलेगा। लेकिन क्या मजदूर की जिंदगी बदलेगी? क्या बेरोजगारी कम होगी? क्या महंगाई घटेगी? या फिर यह सब उस कानून को कमजोर करने की कवायद है, जिसने गरीब को पहली बार कहा था काम मांगो, मिलेगा।

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यशपाल आर्य का आरोप है कि बजट का बंटवारा भी केंद्र तय करेगा। किस राज्य को कितना मिलेगा, यह तय होगा लेकिन विपक्ष शासित राज्यों को क्या मिलेगा, यह हम सब जानते हैं। वे कहते हैं देश में गरीबी खत्म करने की जगह गरीबों को ही खत्म करने की कोशिश हो रही है। धन का केंद्रीकरण हो रहा है। 10 प्रतिशत लोगों की आय के आंकड़ों से 90 प्रतिशत लोगों को विकसित भारत का सपना दिखाया जा रहा है। कांग्रेस पार्टी ने इस बदलाव का पुरजोर विरोध करने का ऐलान किया है। सवाल सीधा है क्या नाम बदलने से भूख मिटेगी? क्या पोस्टर बदलने से रोजगार आएगा? और क्या ‘गारंटी’ हटाकर विकास हो जाएगा?
यह खबर सिर्फ एक योजना की नहीं है। यह खबर उस मजदूर की है, जिसके पास सवाल पूछने की ताकत भी अब धीरे-धीरे छीनी जा रही है।

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