

कॉर्बेट टाइगर रिजर्व का ‘जंगलराज’, ईडी के बाद सीबीआई की दस्तक
देहरादून: पाखरो की कहानी सिर्फ जंगल की नहीं, सत्ता की नाकामी की भी है। यह कहानी है उन पेड़ों की जो गिरे तो थे कुल्हाड़ी से, लेकिन आवाज गूंज रही है लखनऊ और दिल्ली तक। यह कहानी है उस जंगल की, जहां टाइगर तो गिने जाते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार के शिकारी खुल्लमखुल्ला घूमते हैं। यह कहानी है कॉर्बेट टाइगर रिजर्व की पाखरो रेंज की, जहां अवैध निर्माण और पेड़ कटान ने ‘विकास’ के नाम पर प्रकृति की हत्या कर दी।
ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) ने इस पूरे मामले में मनी लॉन्ड्रिंग का एंगल खोज निकाला है। चार नाम, चार चेहरे, लेकिन एक ही कहानी जंगल की लूट और कागज़ों पर विकास। ईडी ने 1.75 करोड़ की संपत्ति अटैच की है, जो सेवानिवृत्त डीएफओ किशन चंद और रेंजर बृज बिहारी शर्मा से जुड़ी है। मथुरा सिंह और अखिलेश तिवारी भी लपेटे में हैं। पीएमएलए कोर्ट में चार्जशीट दाखिल हो चुकी है, लेकिन सवाल यह है कि सीबीआई यानी केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो वही एजेंसी जो देश की सबसे बड़ी मानी जाती है इस मामले में आरोप पत्र दाखिल करने को तैयार बैठी है। मगर इस मामले में सरकार की ‘अनुमति’ रास्ता रोक कर बैठी हुई है। सीबीआई ने अप्रैल में अभियोजन की इजाज़त मांगी थी। नियम है कि 120 दिनों में अनुमति दी जानी चाहिए। और आज जुलाई का आखिरी सप्ताह है। तो यहां सवाल य़ह है कि क्या सरकार जानबूझकर चुप है या व्यवस्था को ढाल बना रही है? इस पूरे मामले में वन मंत्री सुबोध उनियाल का कहना है कि जांच के आधार पर ही कार्रवाई होती है, कानून के मुताबिक प्रक्रिया चल रही है। लेकिन मंत्री जी, क्या कानून ये भी कहता है कि चार महीने चुप बैठिए, और फिर प्रक्रिया अपने आप पूरी मान लीजिए? क्या ये वही सरकार है जो बाघों के संरक्षण के बड़े-बड़े दावे करती है?
इस पूरे मामले पर विजिलेंस जांच, वन मंत्रालय के डीजी की अध्यक्षता में जांच, राज्य पुलिस, वन विभाग, ईडी और अब सीबीआई सबने जांच की है। जांचें होती रहीं, पेड़ कटते रहे, होटल बनते रहे, प्रकृति उजड़ती रही। और सरकार? वो ‘अनुमति’ के कागज़ों में कलम चलाने से पहले शायद मौसम का रुख देख रही है।
सरकार को सोचना चाहिए कि य़ह जंगल का मामला नहीं, लोकतंत्र की परीक्षा है कॉर्बेट की धरती पर जंगल काटे गए हैं, लेकिन अगर अब भी सीबीआई को रोका गया, तो देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी भी सिर्फ कागज़ी बाघ बनकर रह जाएगी।
यह सिर्फ एक जंगल की कहानी नहीं है, यह उस सिस्टम की कहानी है, जहां कानून सिर्फ फाइलों में लिखा जाता है, और अपराध, विकास के नाम पर जायज़ ठहराया जाता है। कुल मिलाकर जंगल जवाब मांग रहा है। और सत्ता जवाबदेही से क्यों डरती है? क्योंकि सबसे बड़ा सवाल य़ह है कि ये ‘जंगलराज’ है या ‘विकासराज’?