

बोलने की आज़ादी जंगल में नहीं मिलती, खासकर जब आप महिला हों और मातहत हों
हल्द्वानी /रुद्रपुर: जंगल की परिभाषा बदल रही है। अब सिर्फ शेर, बाघ, तेंदुए, भालू ही डरावने नहीं रहे। जंगल के भीतर वर्दी पहनने वाले कुछ लोग भी उतने ही खतरनाक हो सकते हैं खासकर तब, जब वो वन दरोगा हों और उनके अधीन कोई महिला वन आरक्षी हो।
ये कहानी है तराई केंद्रीय वन प्रभाग के टांडा रेंज की। यहां की एक महिला वन आरक्षी न्याय के जंगल में भटक रही है। उसकी शिकायत की गूंज हर दरवाज़े से टकराई रेंज अधिकारी से लेकर प्रभागीय वनाधिकारी तक, उप प्रभागीय अधिकारी से आंतरिक समिति के अध्यक्ष तक, फिर पंतनगर थाने और आखिर में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक तक लेकिन हर जगह जवाब वही सन्नाटा और खामोशी।
वन आरक्षी ने आरोप लगाया है कि उसके अधिकारी, वन दरोगा, उसके साथ जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करते थे, फिर मानसिक उत्पीड़न किया गया और आखिरकार छेड़छाड़ तक की घटनाएं सामने आईं। ये सब एक दिन नहीं, एक सप्ताह नहीं पूरे एक साल तक चलता रहा। महिला का अपराध सिर्फ इतना था कि वह चुप नहीं रही।
उसने पहले रेंज ऑफिसर से शिकायत की नतीजा रहा शून्य। फिर प्रभागीय वनाधिकारी के पास गई फिर भी सन्नाटा। उप प्रभागीय वनाधिकारी के कानों तक भी बात पहुंची मगर जवाब सिर्फ देखेंगे, सोचेंगे, करेंगे में ही सिमट गया।
वन विभाग की आंतरिक पारिवारिक समिति, जो महिला सुरक्षा के नाम पर बनाई गई थी, वहां भी सिर्फ कुर्सियां और चाय के प्याले खनकते रहे, समाधान नहीं निकला।
28 जून को आखिरकार पीड़िता ने पंतनगर थाने में शिकायत दी। उम्मीद थी कि अब कुछ होगा। लेकिन एक महीने बीत गया। कुछ नहीं हुआ।
6 अगस्त को आखिरकार वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक उधम सिंह नगर के पास गुहार लगानी पड़ी। लेकिन अभी तक एफआईआर भी दर्ज नहीं हुई है। और फिर ये हुआ कि जो शिकायत कर रही थी, उसका ट्रांसफर जंगल के सन्नाटे में कर दिया गया। और जो आरोपी था, उसे हल्द्वानी ट्रांसफर कर सम्मानजनक पोस्टिंग दे दी गई। एक तरीके से कहिए, इनाम दिया गया काम का।
कुल मिलाकर यह खबर सिर्फ एक महिला की नहीं है, यह खबर एक व्यवस्था की है जो आरोप लगाने वाले को दंडित करती है, और आरोपी को प्रमोट करती है।
यह खबर उन फाइलों की है जो कभी खुलती ही नहीं और खुलती हैं तो खामोश ही रहती हैं।
जिन जंगलों में जानवरों से डरना था, अब इंसानों से डरना पड़ रहा है। और जो वर्दी सुरक्षा का प्रतीक थी, अब उत्पीड़न का औज़ार बन गई है।
यहां सवाल य़ह उठता है कि क्या एक साल तक चलता रहा उत्पीड़न किसी की नज़र में नहीं आया? क्या विभाग की आंतरिक जांच समितियाँ सिर्फ दिखावे के लिए हैं? क्या एक महिला कर्मचारी को शिकायत करने की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी? और सबसे बड़ा सवाल य़ह कि क्या न्याय सिर्फ कागज पर लिखा एक शब्द बनकर रह गया है?