

हल्द्वानी से रिपोर्टिंग करते हुए, जब आप नैनीताल की ओर निगाह उठाते हैं, तो आपको सिर्फ बादलों में लिपटा एक खूबसूरत शहर नहीं दिखता। आपको दिखता है एक डर… एक दबाव… और एक चुप्पी। वो चुप्पी, जो नालों के टूटे किनारों से रिसती है, और हर बहुमंजिला इमारत की नींव में दबी चीख बनकर सुनाई देती है।
सरोवर नगरी नैनीताल जिसे कभी ब्रिटिश कमिश्नर ने 68 नालों के सहारे संतुलित किया था, आज उसी शहर के सीने पर कंक्रीट की चोटें बरसाई जा रही हैं। और जैसे-जैसे शहर ऊँचाई की ओर चढ़ रहा है, उसकी ज़मीन नीचे धंसती जा रही है।
भू-वैज्ञानिक भाष्कर दत्त पाटनी हों या आईआईटी रुड़की की टीम सबका एक ही स्वर है: “नैनीताल की पहाड़ियाँ अब और भार नहीं झेल सकतीं।” ग्रेनाइट की जिन चट्टानों पर ये शहर बसा है, वो अब भुरभुरी हो चुकी हैं। मतलब ये कि अब हर नई इमारत, हर नया निर्माण, एक और मौत को दावत देने जैसा है।
बता दे कि 1880 में नैनीताल भूस्खलन की चपेट में आया था। सैकड़ों जानें गईं थीं। वो हादसा इतना बड़ा था कि ब्रिटिश प्रशासन ने सबक लेते हुए नालों की व्यवस्था की थी। लेकिन आज़ादी के बाद आई सरकारों ने क्या किया? नालों को बंद किया, पहाड़ों को खोदा और पहाड़ियों को रुलाया।
आज नैनीताल के हर कोने में निर्माण हो रहा है। जिला विकास प्राधिकरण है, लेकिन उसमें न तो ‘विकास’ दिखता है, न ही ‘प्राधिकरण’। अवैध निर्माणों पर कार्रवाई के नाम पर फाइलों में नोटिंग होती है, दीवारों पर हथौड़े नहीं चलते।
आप सोचिए, अगर एक शहर की ज़मीन को ही ख़तरा हो, तो फिर उसकी छत कितनी महफूज़ हो सकती है?
पर्यटन, ट्रैफिक और लापरवाही का मिला-जुला असर है कि नैनीताल का हर मोड़ अब सवाल बन गया है। ट्रैफिक से पहाड़ों की जड़ें कांप रही हैं और बारिश होते ही धंसती ज़मीनें आने वाले खतरे का संकेत दे रही हैं।
और शायद यही वो वक्त है जब शहर के हर नागरिक को, हर अफसर को, हर योजना निर्माता को ये सवाल पूछना होगा, “क्या हम नैनीताल को बचा रहे हैं, या उसकी शवयात्रा की तैयारी कर रहे हैं?” पहाड़ अब चुप नहीं हैं, वो फुसफुसा रहे हैं… “बचा लो मुझे, वरना अगली बारिश में सिर्फ पानी नहीं बहेगा, एक शहर बह जाएगा।”