

हल्द्वानी: महानगर का रूप अख्तियार कर चुके हल्द्वानी के घरों में रोटियाँ ठंडी पड़ रही हैं, और प्रशासन गर्मी में भी बर्फ़ जैसा ठंडा बना बैठा है। रसोई गैस की आपूर्ति एक बार फिर लड़खड़ाने लगी है। और यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि मानव निर्मित व्यवस्था की बीमारी है।
स्थानीय नागरिकों का आरोप है कि कुछ गैस एजेंसी संचालक ‘मानसून’ का बहाना बना कर सप्लाई की कमी का रोना रोते हैं। लेकिन असल कहानी कुछ और है ऐसी कहानी जिसमें सिस्टम की चुप्पी सबसे बड़ा किरदार बन बैठी है।
रसोई गैस को ‘अत्यावश्यक सेवा’ के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। यानी इसके लिए किसी भी प्रकार की अवकाश नीति का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। लेकिन हल्द्वानी में एजेंसी संचालकों ने अपना ही नियम बना रखा है सप्ताह में एक दिन का अवकाश, त्योहारों में भी गोदाम बंद। कारण? ‘लेबर की कमी’।
पर जरा रुकिए, कहानी यहीं खत्म नहीं होती। गोदामों में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या से लेकर उनके अधिकारों तक, हर जगह झोल है।
एक कर्मचारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि साहब, बाबूजी के यहां कई साल से काम कर रहा हूं। पीएफ क्या होता है, कभी समझ में नहीं आया। बाबूजी ने आयुष्मान कार्ड भी नहीं बनवाया। आधा पैसा तो दवा में चला जाता है। और जब पगार बढ़ाने की बात करता हूं तो कहते हैं पिछले दशक में 500 रुपए तो बढ़ा ही दिए थे।
अब बात करते हैं असल ‘खेल’ की कालाबाजारी की। सिलेंडरों की क़िल्लत है या क़लाकारी, यह तय कर पाना मुश्किल नहीं जब आप सुनें कि ‘बंशी’ अब गैस का नया दुश्मन बन बैठा है। बंशी यानी एक लोहे की छड़ी, जिसके ज़रिए भरे हुए घरेलू सिलेंडर से कुछ ही मिनटों में गैस को एक अन्य सिलेंडर में ट्रांसफर किया जाता है। इसका उपयोग करने वाले अधिकतर वे ड्राइवर हैं जो डिलीवरी के दौरान ही घटतोली कर लेते हैं।
कालाबाजारी का दूसरा अध्याय और भी ख़तरनाक है। होटल, मिठाई की दुकानों, रेस्टोरेंट और फूड वेन्स में घरेलू सिलेंडरों की गैस ट्रांसफर कर दी जाती है कॉमर्शियल सिलेंडरों में। यानी घरेलू सब्सिडी का दुरुपयोग और नियमों की खुली धज्जियाँ।
सबसे हैरानी की बात ये है कि प्रशासन सब कुछ जानते हुए भी अनजान बना हुआ है। जब पिछले दिनों प्रशासन ने एक छापेमारी की, तब जाकर ‘बंशी’ का रहस्य सामने आया। लेकिन उसके बाद क्या हुआ? वही जो हमेशा होता है फाइलों में कुछ रिपोर्ट्स दबी रहीं और बंशी फिर चलने लगी।
प्रशासन की चुप्पी सबसे बड़ा सवाल
रसोई गैस जैसी आवश्यक सेवा में यह धांधली किसकी नाक के नीचे हो रही है? जिन एजेंसी संचालकों ने काग़ज़ों में अपने ही घरवालों को कर्मचारी दिखा रखा है, और असली कर्मचारियों से न्यूनतम वेतन, बिना किसी सुविधा के काम करवा रहे हैं उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं होती?
क्या हल्द्वानी की रसोईयों में ‘बंशी’ की गूंज ही अब स्थायी ध्वनि होगी?
जब तक प्रशासन की आंखें नहीं खुलतीं, जब तक एजेंसियों पर लगाम नहीं लगती, और जब तक कर्मचारियों को उनका हक़ नहीं मिलता तब तक यह सवाल हर घर में उठेगा। क्योंकि गैस की सप्लाई नहीं, सिस्टम की रीढ़ टूट रही है।