

देहरादून: कभी-कभी कोई दृश्य ऐसा होता है, जो सिर्फ खबर नहीं होता वह एक संवेदना बन जाता है। उत्तराखंड की रजत जयंती का दिन कुछ ऐसा ही था। मंच पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे लेकिन इस बार उनका अंदाज कुछ अलग था। सिर पर पहाड़ी टोपी, चेहरे पर मुस्कान, और जुबान पर गढ़वाली-कुमाऊनी के शब्द। उस वक्त मंच से सिर्फ भाषण नहीं, पहाड़ का दिल बोल रहा था।
प्रधानमंत्री ने कहा देवभूमि उत्तराखंड का मेरा भै बंधु, दीदी, भुलियों, दाना सयानो, आप सबू तई म्यारू नमस्कार। और देखिए, शब्दों की यह मामूली-सी पंक्ति भी तालियों में तब्दील हो गई। क्योंकि लोग भाषण नहीं, अपनापन सुन रहे थे। राजनीति में बहुत लोग वादे करते हैं, पर भाषा में उतरकर जनता से जुड़ने का प्रयास दुर्लभ होता है।
यह वही क्षण था जब जनता को लगा दिल्ली से आया नेता भी पहाड़ का पानी और मिट्टी समझने लगा है।
मोदी ने अपने भाषण में हरेला, फुलदेई, भिटोली, नंदा देवी, जौलजीबी, देवीधुरा मेले, और यहां तक कि दयारा बुग्याल के बटर फेस्टिवल तक का ज़िक्र किया।
ये सिर्फ नाम नहीं थे, ये लोक संस्कृति की स्वीकृति थी।
क्योंकि जब कोई प्रधानमंत्री पहाड़ के बटर फेस्टिवल का नाम लेता है, तो यह बताता है कि संस्कृति भी विकास का हिस्सा है केवल सड़कें और पुल नहीं।
यहां राजनीति थी, लेकिन आम राजनीति नहीं। यहां वोट की नहीं, भावना की राजनीति थी। एक ऐसा जुड़ाव जो यह कहता है मैं सिर्फ योजनाएं नहीं लाया, मैं आपकी भाषा, आपकी परंपरा, आपका आत्मसम्मान भी जानता हूं।
इस देश में नेताओं का जनता से रिश्ता अकसर मंच की ऊंचाई से तय होता है, पर आज मोदी का पहाड़ी अंदाज उस ऊंचाई से नीचे उतर आया लोगों के दिलों तक।
आज जब भाषाओं को तोड़ने की कोशिशें हो रही हैं, उस दौर में प्रधानमंत्री का यह प्रयास एक सकारात्मक संदेश है कि विकास की असली शुरुआत संवाद से होती है, और संवाद तब होता है जब नेता जनता की भाषा में बात करता है।
कुल मिलाकर जब किसी नेता के शब्दों में जनता की बोली शामिल हो जाती है, तो राजनीति थोड़ी मानवीय हो जाती है। और जब मंच से पैलाग, सैंवा सौंली’ गूंजता है, तो लगता है सत्ता भी कभी-कभी संवेदना की भाषा बोलती है।

