

कुमाऊं के सबसे बड़े अस्पताल में नहीं है बर्न मरीजों के लिए डॉक्टर, तीन साल से सिस्टम है नींद में
हल्द्वानी: जब किसी गरीब का बच्चा गर्म पानी से झुलसता है तो वह दर्द सिर्फ उसकी चमड़ी में नहीं, बल्कि इस देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की लापरवाही में भी महसूस होता है। हल्द्वानी का डॉ. सुशीला तिवारी अस्पताल जिसका नाम बड़ा है लेकिन काम, वो तो खुद बर्न यूनिट में भर्ती हो चुका है। कुमाऊं के सबसे बड़े इस सरकारी अस्पताल में तीन साल से एक भी प्लास्टिक सर्जन नहीं है। बर्न वार्ड है, बर्न आईसीयू है, लेकिन इलाज नहीं है। कारण है सरकारी की दोहरी नीति। हां, वही नीति जो आम आदमी के लिए अक्सर मौत का दूसरा नाम बन जाती है। 2019 तक इस अस्पताल में एक नाम था डॉ. हिमांशु सक्सेना। इकलौते प्लास्टिक सर्जन थे। जब तक वो थे, तब तक जले हुए लोग इलाज के बाद घर लौटते थे, अब सीधे रेफर हो रहे हैं या तो हल्द्वानी से बाहर इलाज कराने जाते है, या फिर भगवान भरोसे। तीन साल हो गए साहब, लेकिन सरकार को दूसरा प्लास्टिक सर्जन नहीं मिल सका। क्या आप जानते हैं, ये वही सरकार है जो हर साल करोड़ों के विज्ञापन में स्वास्थ्य में क्रांति की तस्वीरें दिखाती है।
डॉ. हिमांशु ने नवंबर 2022 में इस्तीफा दिया, लेकिन आज अक्टूबर 2025 चल रहा है। अब तक इस अस्पताल को बर्न यूनिट के लिए डॉक्टर नहीं मिला। कॉलेज प्रबंधन ने समस्या का समाधान ऐसे निकाला जैसे कोई सस्ता जुगाड़ू ठेकेदार करता है प्लास्टिक सर्जरी यूनिट को सर्जरी विभाग में मिला दो। जैसे कह दिया जाए कि अगर डॉक्टर नहीं हैं, तो कंपाउंडर ही ऑपरेशन कर दे। अब आइए एक बच्चे की कहानी सुनते हैं, जो शायद कभी न बताई जाती, अगर उसके पिता गरीब न होते। बीते 15 सितंबर की रात हल्द्वानी के डहरिया इलाके से एक परिवार भागता हुआ एसटीएच पहुंचता है। एक साल का बच्चा गर्म पानी से झुलस गया। मां की चीख, पिता की घबराहट, सब इमरजेंसी में घुल चुके थे। लेकिन डॉक्टरों ने कहा हमारे यहां प्लास्टिक सर्जन नहीं है। हम कुछ नहीं कर सकते। बच्चे को रातों-रात बरेली ले जाया गया। क्या आपने कभी बरेली की सड़कें देखी हैं? झुलसे हुए बच्चे को लेकर रात में सैकड़ों किलोमीटर चलना किसी सजा से कम नहीं।
और ये कोई इकलौती कहानी नहीं है। 99 प्रतिशत मरीजों को यहाँ से रेफर किया जा रहा है। बर्न वार्ड सिर्फ नाम का ही है, पर यहां इलाज नहीं करता। अब ज़रा आंकड़ों की बात करते हैं, जिसे सरकारें अपने भाषण में घुमा देती हैं, पहले रोजाना 10 से 20 मरीज बर्न यूनिट में भर्ती होते थे। अब ओपीडी बंद रहती है। बर्न वार्ड सूना पड़ा है। हल्के मरीज कभी-कभार भर्ती होते हैं।
जिन्हें ज़रूरत सबसे ज्यादा है, वो रेफर हो जाते हैं। सवाल सिर्फ डॉक्टर का नहीं है, सवाल नीयत का है। उत्तराखंड के मेडिकल सिस्टम में क्या ये तय कर दिया गया है कि गरीबों के लिए इलाज की कोई संभावना नहीं, सपना बना रहेगा? क्या स्वास्थ्य बजट सिर्फ इमारतें बनाने और फोटू खिंचवाने में लगेगा? क्या कोई अफसर, कोई मंत्री, कभी इन अस्पतालों का रियलिटी चेक करेगा या हेलीकॉप्टर से सीधे इनॉगरेशन कर चलता बनेगा? सवाल बहुत हैं, लेकिन जवाब कहीं नहीं है। ये सरकार आपको फाईव जी देने की बात कर रही है, लेकिन 1 प्लास्टिक सर्जन नहीं दे पा रही। जले हुए बदन का दर्द असहनीय होता है, लेकिन उससे बड़ा दर्द है इस व्यवस्था का मरा हुआ ज़मीर। शायद कोई पढ़े, शायद कोई सोचे, या शायद फिर से कोई जलेगा, और सिस्टम फिर से चुप रहेगा।